सत्य कथा -
आज सुशीला बहुत उदास थी |सोच
रही थी इतनी उम्र हो गई उसने क्या पाया पूरे जीवन में |
एकाएक उसकी आँखें भर आईं और नयनों से आंसुओं की नदी बहाने लगी |बहुत
देर बाद वह अपने जज़बातों पर नियंत्रण कर पाई फिर यंत्र चालित सी अपने काम में लग
गई |
मैं बहुत देर से उसके क्रिया कलाप देख रही थी |जब रहा नहीं गया पूंछ
ही लिया अकारण रोने का कारण
पहले तो मौन रही फिर धीरे से बोली” मेरे बेटे का फोन आया था वह कह रहा
था कि उसकी पत्नी ने खाना भेजने से मना कर दिया है वह कहती है कि कमाती हैं तो
क्या हमारे लिए |और भी तो बच्चे हैं उनसे क्यूं नहीं कहतीं ?हार कर छोटे बेटे को
कहा कि वह केवल रोटी ही भेज दे पर उसने पलटवार किया माँ जानते हुए भी मेरी गरीबी
का मजाक क्यूँ बना रही हो |कल तो शाम को
बिना खाना खाए ही सो गए थे |आज भी अभी तक आटे की कोई व्यवस्था नहीं हो पाई है |मैं तो आपसे पैसे माँगने की सोच
रहा था |”
तभी एकाएक घंटी बजी और किसी
की आवाज आई |सुशीला जान गई कि उसकी बेटी ही थी |जल्दीसे दरवाजा खोला |शीला उससे
गेस का सिलेंडर माँगने आई थी अपने धर की चाबी दे कर उसे रवाना किया |
थोड़ी देर बाद एक किशोर बालक आया अपने पिता की शिकायत लिए \उसने बताया
कि यदि फीस जमा नहीं की तो नाम कट जाएगा |बचाती सुशीला के पास जो अंतिम नोट था उसे
दे दिया और बिना कुछ खाए काम करने लगी |
मुझसे रहा नहीं गया अपने
खाने में से आधा उसे दिया और पहले खाने को कहा जैसे तैसे खाना खा कर
वह किसी से फोन पर बात करने लगी |दूसरी ओर फोन पर उसकी बहन थी |उसे
सलाह दे रही थी “जब इतनी महनत करती है तो बिना
खाए कैसे चलेगा कम से कम एक शिफ्ट के पैसे तो अपने पास रखा कर |
जानती तो है अपने बच्चों को
|उनका बस चले तो तुझे जीते जी खा जाएं और डकार भी न लें “|शीला और कम्मों भी तो
कुछ मदद नहीं करतीं उलटे किसी न किसी बहाने तुझे पटा कर अपनी फरमाइशें पूरी करने
में लगी रहतीं हैं |
सुशीला भरे मन से बोल रही
थी “ क्या करूँ पहले से बचत नहीं की और बच्चों पर ही खर्च करती रही |अब तो दो जून
रोटी के भी लाले हैं सोचती हूँ अगले साल
आश्रम चली जाऊंगी और फिर लौट कर नहीं आऊंगी क्या रखा है इस दुनिया में |बिना मतलब
के कोई नहीं पूंछता |
आशा