नवरात्री के प्रारंभ से ही उपवास रखने की चाहत थी |इसके पूर्व कभी उपवास रखा ही न था |सुबह से घर झाड़ा पौंछा खुद स्नान किया |पूजन की तैयारी की |
पहले सोचा वृत तो निर्जला ही रखना चाहिए |
पर सर दुखने लगा| मन ने कहा चाय तो पीलूँ इसमें क्या हर्ज है |चाय का प्याला सब
के हाथों में देख मन न माना और चाय पीली |
फिर पूजा की चित्त लगा कर |दुर्गा चालीसा का पाठ किया और आरती की |यह सब करते
करते
ग्यारह बज गया|खाना बनाया सब को खिलाया |फिर फलाहार बनाया और पेट भर खाया |फल फूल तो दिन भर चलते रहे रात्रि को आरती की पर मन में कहीं कुंठा रही |बहुत सोचा फिर याद आया मैंने अपने से किये वादे को नहीं निभाया खुद पर आत्म नियंत्रण न रख पाया |अब सोचा नियमित दर्शन को जाऊंगा |पर घर में आए मेहमान यह भी नहीं हो पाया | माता तुम्हारा एक रूप ही देखा शेष के लिए आने वाले नवदुर्गे तक जाने का वादा किया खुद से |अब दुखी हूँ अपने मन को स्थिर न रख पाने के लिए |
मालूम तो है कि तुम्हारे रूप अनेक पर देख नहीं पाया |
आशा
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