अमृत कलश

Sunday, May 13, 2012

सेवा का फल

हिम श्रृंगों के बीच बसा इक ग्राम बड़ा ही मनहारी 
नंदा नगर नाम था जिसका दृश्य नयन को सुखकारी 
ऊंची नीची श्रृंग पंक्तियों पर थे छोटे छोटे घर 
कहीं कहीं थे खेत सलोने हरियाली दिखती सुन्दर 
था छोटा सा ग्राम पर उसमें  सारी सुविधाएं थीं 
मीठे जल के झरने थे दो धार दूध की गाएं थीं 
कुत्ते थे खूंखार बहुत पर पहरेदार निराले थे 
स्वामी की रक्षा में तत्पर इंगित पर मरने वाले थे 
किन्तु निर्दयी  ग्राम निवासी थे  गर्वीले और अनपढ़
उनके हथियार नुकीले पत्थर लोहे के अनगढ़ 
वे ना किसी परदेसी का स्वागत करना ही सीख सके  
कभी भिखरी की झोली में डाल ना कोई भीख सके 
उसी ग्राम में ऊंचाई पर एक झोपड़ी थी अभिराम 
विश्वनाथ नाम के एक बुद्ध रहते निष्काम 
फूल मती उनकी पत्नी थी शांत धेर्य की प्रतिमा सी 
उनका वहीं त्रिवेणी गंगा यमुना था तीरथ काशी 
उस कुटी के द्वारे पर थे खूबानी के सुन्दर झाड़
चारों ओर सुहाती उसके अंजीरों की सुन्दर बाढ़
झूल रही अंगूर लाता थी कुटी द्वार के बीचोंबीच 
गिरी श्रृंगों से उतरा झरना नित प्रति उनको देता सींच
 एक पुत्र था उस दम्पत्ति के किन्तु काल नेछीन लिया
लूटे हुए घर में सुख का कुछ और सहारा भी ना दिया
किसी भाँती सुख दुःख से अपना जीवन बिता रहे दौनों
बुरे भाग्य के लेख धैर्य से के हाथों मिटा रहे दौनों
सुरभि गाय थी एक दुधारू दौनों समय दूध देती
तृप्ति दान दे उस दम्पत्ति को उनसे स्नेहाशीष लेती
वे दम्पत्ति थे बुद्ध ,सदाचारी ,उपकारी ,ईश्वर भक्त
थे शरीर से भी, मन से भी ,किन्तु अपाहिज बड़े अशक्त
एक  दिवस गोधूली समय में कुत्ते भूंक  उठे नीचे
किन्तु  ग्रामवासी चुप बैठे रहे ,नयन अपने मींचे
बच्चे चीख रहे थे रह रह रौर  उठता चाहू ओर
कोहरा  गिरता ही जाता था अन्धकार छाया घनघोर
फूल  मती ने कहा ग्राम में आया दुर्भागी कोई
जिसे देख दया ,करुना ,ममता भी जा छिपकर सोई
विश्व नाथ चुपचाप नव आगंतुक का आना देख रहा
हो, वे अपने द्वार आगे ,उसने निज कर टेक कहा
जब  तक उठे उठे वह ,परदेसी कुटिया  पर आ पहुंचे
दिव्य  ,भव्य थे सुन्दर दौनों स्वस्थ बाली चौड़े ऊंचे
वे नर नारायण आए थे उचित व्यवस्था देने को
उनके धैर्य ,दया करुणा की कठिन परिक्षा लेने को
विश्व  बढ़ा आगे स्वागत कर उनको कुटिया में लाया
फूल मती ने आसान दे कर सादर उनको बैठाया
फिर भोजन की तैयारी में दम्पत्ति व्यस्त लगे फिरने
कांड मूल फल फूल मिले जो ला कर भेट लगे करने
वृद्ध विश्व ने अपने हिस्से का भी दूध दिया ला कर
फूल मती भी हर्षित थी अपने हिस्से का भी भोजन करवा कर
जब नर नारायण तृप्त हुए खा पी कर निद्रा ने घेरा
दम्पत्ति के जीर्ण बिछोनों पर डाला उनने अपना डेरा
निकट अग्नि के बैठ रात बितादी नयनों में
शीत ठिठुरते अंग जड़हो गए णा साहस बयनों में
 किन्तु तीसरे प्रहार अपनी निंद्रा ना रोक सके दौनों
लुधक गए वे पास पास ही भूखे ,श्रांत,थके दौनों
भोर  हुआ पक्षी वन बोले उषा मुस्काई चहु  ओर
क्षितिज  पटी पर चमक उठी थी ज्वलित सूर्य की स्वर्णिम कोर
सोये  पत्ते जाग उठे थे कलियाँ खिल आईं थी
नन्हीं दुर्वा ओस कणों से सज कर फिर इठलाई थी
हिम श्रृंगों पर अरुण प्रभा का ऐसा साज सजाती थी
मानो  सुन्दर लाल ओढ़नीओढ़ प्रकृति शर्माती थी
दम्पत्ति उठे चौक कर देखा अतिथि जाग कर बैठ गए
नए भोर की नई सुबह में दौनों थे नए नए
कुटिया बदल प्रसाद हुई धनधान्य भरे कोठे चहुँ ओर
अन्न  वस्त्र के ढेर लगे थे जिनका दीखता  ओर ना छोर
सुरती सुता सब बछड़े वाली बन कर दूध बिखेर रहीं
वृक्ष  फलों से लदे  खड़े थे कलियाँ सुरभि उड़ेल रहीं
दम्पत्ति के वे जीर्ण वस्त्र  दुर्बल तन जाने कहां  गए
दौनों  युवा बने फिर से दौनोएँ के पट नए नए
सुख सुविधा चहुओर लुटाते थे अपनी करुना अविराम
उस अंगूर लता पर छाए  गुच्छे बड़े बड़े अभिराम
वे दौनों इस नए  रूप में पा अपने को चौक पड़े
जैसे  थे वैसे ही भौंचक्के रहे जहाँ के तहां कड़े
नर नारायण ने  मुस्कुरा कर  उन्हें बुलाया अपने पास
है  बदला यह अतिथि धर्म का हम सच्चे सेवक के दास
यह कह कर दौनों  अन्तर्हित हो जाने कहाँ गए किस ओर
दम्पत्ति  रहे सोचते प्रभुकी कैसी अद्भुद करुण कोर
नंदा  ग्राम वासियों ने उनको अपना अधिपति माना
दया धर्म का मिलता है कितना सुन्दर फल पहिचाना
बच्चों यदि इसी भाँती अपना धर्म जान जाओगे तुम
सेवा करके अभ्यागत की मन में नित सुख पाओगे तुम
तो प्रभु तुम पर दया करेंगे जग में नाम कमाओगे
प्रभु से सच्चा बदला उसका इसी भाँती तुम पाओगे |

 
किरण