अमृत कलश

Saturday, October 31, 2015

लद्दाख




लद्दाख

पिछले साल गर्मियों में लद्दाख जाने का मन बनाया |जम्मू से सुबह ८ बजे की फ्लाईट थी |जब हम एअर पोर्ट पहुंचे
कुछ मजदूर बड़ी बड़ी पोटलियां लिए हुए बैठे थे |अधिक ताज्जुब तो तब हुआ जब वे लोग भी हमारे साथ हवाईजहाज में लद्दाख जाने के लिए चढे |ऐसा लग रहा था जैसे हम किसी लोकल बस में सफर कर रहे हों |कुछ ने तो अपनी गठरी भी अपने ही साथ रख ली थीं |
हवाईजहाज बहुत छोटा था |अब हम रन वे से ऊपर आसमान मे थे |खिड़की से बाहर का दृश्य बहुत ही सुंदर दिख रहा था |बादलों पर पड़ती सूर्य की किरणे,बर्फ से ढके पहाड़ किसी परी के देश की सैर का मजा दे रहे थे |
लगभग एक घंटे बाद हम लेह हवाई अड्डे पर थे | कम दबाव वाले वायु मंडल से सामंजस्य स्थापित करने के लिए
(acclimatization )कुछ समय रुकने के बाद होटल की ओर रवाना हुए |होटल बहुत साफ सुथरा था |पर कमरे में न तो कोई पंखा था न ही ऐ.सी .|जून का महीना था पर ठण्ड ऐसी थी कि दांत कट कटाने लगे|
वहाँ जितने भी लोग ठहरे थे लगभग सभी विदेशी थे |कुछ यूरोपियन्स से बात हुई |वे भी हम से मिल कर बहुत खुश हुए| काफी देर तक लद्दाख की चर्चा होती रही |उन लोगों के घूमने की व खाने की अलग से ब्यवस्था थी |
सुबह नाश्ते के बाद कमरे के सामने गेलरी में जा बैठे |वहां धूप थी |धूप इतनी तेज थी कि बदन जलने लगा और छांव में कपकपा देने वाली ठण्ड |बड़ा अजीब सा अहसास हुआ |होटल मालिक ने इनर लाइन परमिट और घूमने के लिए टाटा
सूमो की ब्यवस्था करवा दी थी |
सुबह होते ही लेह के jokhang &Spitak बौद्ध गोम्फा देखने के लिए चल दिए |स्पितक बौद्ध गोम्फा एक पहाड़ी पर होने के कारण चढ़ते समय कुछ अधिक समय लगा | वहां भगवान बुद्ध की एक बहुत विशाल प्रतिमा देखी |इतनी सुंदर प्रतिमा थी
कि उस पर से नजर ही नहीं हटती थी |उसी परिसर में देवी तारा और उनके २३ अवतारों के भी दर्शन किये |वहां का रख रखाव करने वाले एक बौद्ध से कई बातें जानने को मिलीं |जब हमने उसे कुछ देना चाहा उसने लेने से इंकार कर दिया |हमने दान पेटी में अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किये ,और सिंधु उदगम स्थल जाने के लिए नीचे उतरे | सिंधु नदी का उदगम स्थल देखना भी एक बहुत मन मोहक सपना सा था |वहां पर नदी बहुत तीब्र गति से बहती है |नदी पर बने पुल पर खड़े हो कर आसपास का नज़ारा देखना बहुत सुंदर अनुभव था |पुल पर असंख्य पताकाएं बंधी हुईं थीं |पूछने पर ड्राइवर ने बताया कि जब कोई मानता की जाती है तब लोग कपड़ों पर लिख कर उन पताकाओं को वहां बांध जाते है |और जब मानता पूरी हो जाती है ,उनको खोल कर नदी में प्रवाहित कर देते है |        रास्ते में एक हरे घास के मैदान में " याक और जो" को चरते देख हमने ड्राइवर से उनकी जानकारी ली |उसने बताया कि याक का उपयोग परिवहन के लिए किया जाता है तथा जो को दूध के लिए पाला जाता है |"जो" एक cross -breed चौपाया है |लौटते समय नाम्बियार राजा का ९मंजिला महल भी देखा | उसका रख रखाव बहुत अच्छे ढंग से किया गया है |शाम होते होते हम अपने आज के अंतिम पड़ाव शांती स्तूप पर थे | ऊपर से लेह का दृश्य बहुत सुंदर लग रहा था |जब हम वापस लौट रहे थे रास्ते में मिलने वाले कुछ लोगों ने"जुले" कह कर अभिवादन किया ,ड्राइवर ने बताया कि यहाँ पर अभिवादन के लिए जुले कहा जाता है | हमने भी नमस्ते की जगह लोगों का अभिवादन जुले कह कर किया |
अगले दिन सुबह नुब्रा घाटी जाने के लिए तैयार हुए |हमारे साथ चार अन्य यात्री भी थे उनमें से तीन बोम्बे से आई हुई शिक्षिकाएं थीं और एक तमिल सज्जन थे |जैस जैसे आगे बढने लगे अपने को चारों ओर से बर्फ के पहाड़ों से घिरा हुआ पाया |हरियाली का दूर दूर तक नामोंनिशान नहीं था |इसी लिए तो लद्दाख को बर्फ का रेगिस्तान कहा जाता है |
कुछ समय बाद हम दुनिया की highest motorable road पर से गुजर रहे थे |सड़क की कुल ऊंचाई १८300 फीट
है |इसे खारडुंग-ळा के नाम से जाना जाता है |एक तरफ ऊंची बर्फ से ढकी पहाड़ी और सड़क के दूसरी ओर बर्फ से ढकी खाई |यहां तक कि सडक पर भी हल्की सी बर्फ की परत थी |जगह जगह मिलिट्री की चौकियां बनी हुई थीं |मिलिट्री के लोगों का ब्यवहार बहुत आत्मीयता से भरा हुआ था |मन उनके प्रति श्रद्धा से भर गया |
एकाएक हमारी गाड़ी पीछे की ओर स्किट होने लगी |ड्राइवर जल्दी से नीचे उतरा और पहियों पर रोक लगाई |सावधानी से हमारे साथ के लोग भी उतरे |तमिल राम स्वामी तो फिसल ही गए ,और बर्फ की दीवार से टिक कर खड़े हो गये |
पीछे से एक मिलिट्री की जीप आरही थी |उसकी मदद से सड़क पार कर पाए और खाई में गिरते गिरते बचे |एक बहुत बड़ा हादसा होते होते बचा |
जब नुब्रा घाटी पहुचे दिन के १२ बज रहे थे |दो नदियों शायोक और नुब्रा की छोटी छोटी सी धाराओं से बनी यह घाटी बहुत हरी भरी है |वहां का बौद्ध गोम्फा और मंदिर देखे |फिर एह फार्म हाउस पर दो कुब्ब वाला ऊँट भी देखा |क्यों कि शाम हो गई थी, हम एक विश्राम गृह में रुक गए |वहां दो भाई बहन उस विश्रामगृह की देख रेख करते थे |वे इतने स्नेह से मिले कि घर सा लगने लगा |रात को हमारे साथ के लोगों ने वहां के लोकल पेय "छंग" का भी रसास्वादन किया |
अगले दिन सुबह होते ही लेह के लिए यात्रा शुरू की |थकान इतनी होगई थी कि सारे दिन होटल में आराम किया |
शाम को वहां के छोटे से मार्केट में कुछ खरीदारी की |उस समय एक बहुत बड़ा बौद्ध लोगों का जुलुस भी देखा |
फिर सुबह होते ही Pangong lake जाने के लिए जीप में सबार हुए |सोचा कुछ खाने के लिए ले लिया जाए |एक होटल पर बन रहे पराठों को पेक करवा लिया| यह रास्ता बहुत ऊबड़ खाबड़ होने के कारण रास्ते में बहुत कठिनाई हुई |जाते समय सेनडूल्स भी देखने को मिले |पर जब झील पर पहुंचे ,सारी थकान चारों ओर बर्फ से ढंकी पहाड़ियों से घिरी झील देख कर एक दम तिरोहित हो गई |इस झील कि लम्बाई १३० किलोमीटर है |अघिकांश भाग चींन के अधिकार में है तथा शेष भाग भारत में है|यह १४००० फीट की ऊंचाई पर स्थित है |इतना साफ पानी इससे पहले कभी न देखा था |कचरे का तो नामो निशान तक नहीं था |सच पृथ्वी पर स्वर्ग नजर आ गया | वहां बने बंकरों में मिलिट्री के लोग सुरक्षा हेतु रहते है |
बादल घिर आए थे अतः लेह लौटना ही उचित समझा |समयाभाव के कारण चुम्बकीय घाटी नहीं जा पाए |जब कोई वाहन इससे से गुजरता है ,वाहन की गति अपने ही आप धीमी हो जाती है | मौसम खराब होने के कारण उस दिन की फ्लाईट रद्द हो गई थी |कुछ लोग तो सड़क मार्ग से कारगिल होते हुए श्री नगर चले गऐ |पर हम दूसरे दिन अपनी फ्लाईट का इंतजार करते रहे |हमारी फ्लाईट तीन घंटे लेट थी |एरोड्रम पर समय काटने के लिए लोगों से बातें करने लगे |
बातों ही बातों में बहुत सी और जानकारियाँ मिलीं |जुलाई माह में सिन्धु महोत्सव में वहां के लोग अपनी अपनीं पारंपरिक
वेश भूषा में आते हैं और उस समय वहां तरह तरह के सांस्कृतिक आयोजन और खेल होते हैं |लद्दाख के प्रत्येक गांव में पोलो खेला जाता है पर हर जगह अपने अपने नियम होते हैं|हमने उनलोगों से "जुले" कह कर अभिवादन किया और कुछ समय बाद हम अपने २ गंतव्य की ओर चल दिए |उस यात्रा में बहुत अच्छा लगा |सोचती हूं एक बार वहां जाने का और प्लान बना लें तो कितना अच्छा हो |
आशा

Friday, October 23, 2015

तीन चूहे



तीन चूहे

तीन चूहे थे |वे अपने आप को बहुत चतुर समझते थे |प़र वे बिल्ली से बहुत डरते थे |हर समय अपने आप को उससे बचाने की कोशिश में लगे रहते थे |एक दिन उनने सोचा की क्यों न वे अपने मकान बना लें रोज रोज का झंझट ही
समाप्त हो जाएगा |
पहले चूहे ताऊं ने अपना मकान कागज का बनाया ,
उसमें रंग बिरंगा दरवाजा लगवाया |
ख़ुद को बहुत सुरक्षित पाया |
दूसरे चूहे ठाऊँ ने एक किला बनवाया,
आसपास की खाई में दूध भरवाया ,
किले में अपने को अधिक सुरक्षित पाया |
तीसरा चूहा दाऊं था ,
वह बहुत असमंजस में था ,
आर्कीटेक्ट से नक्षा बनवाया ,
सीमेंट रेत से घर बनवाया ,
लोहे का दरवाजा लगवाया ,
अन्दर ख़ुद को सुरक्षित पाया |
बिल्ली भी कुछ कम नहीं थी ,
उसने एक तरकीब सोची,
पहुंची पहले ताऊं के घर ,
बोली "बेटा ताऊं ,बेटा ताऊं ,
क्या मैं घर के भीतर आऊं ",
ताऊं बोला " मौसी आज नहीं आना ,
मुझको है बाहर जाना "
पहले तो वह लौट चली ,
पर कुछ सोच लौट पड़ी ,
गुस्से मैं पंजा फैलाया ,
ताकत से घर पर दे मारा ,
कागज का मकान नष्ट हो गया ,
ताऊंबिल्ली का भोजन हो गया |
पेट भर गया जब बिल्ली का ,
उसका मूड ठीक हो गया |
दुसरे दिन बिल्ली देर से उठी ओर इधर उधर घूमने लगी |पर कुछ समय बाद उसे भूख सताने लगी उसको ख्याल आया की क्यों न वह ठाऊं के घर जाए ओर उसे अपना भोजन बनाए |
वह जल्दी से किले तक पहुंची ,
खाई देख हुई भोंच्क्की ,
केसे खाई पार करे ,
ओर किले तक पहुंचे ,
कुछ क्षण तक वह खडी रही,
फिर सारा दूधचट कर गई ,
ओर खाई पार कर गई |
एक छलांग में दीवार फांद कर,
ठाऊं को भी चट कर गई |
बात तीसरे दिन की है |जब बिल्ली को भूख लगी तब वह बेचैन हो रही थी | अब उसे दाऊं की याद आनेलगी |
ओर वह उसके घर की ओर चल दी |
जैसे ही उसने घर देखा ,
लोहे का दरवाजा देखा ,
घूम घूम बाहर से घर देखा ,
कोइ राह नजर न आई ,
उसके मन में उदासी छाई |
फिर भी हिम्मत न हारी,
मीठी आवाज में वह बोली ,
दाऊं दाऊं प्यारेदाऊं ,
"क्या नया घर नहीं दिखलाओगे ,
अपने घर नहीं बुलाओगे ",
दाऊं बहुत सीधा था वह भूल गया कि अपने घर में ही वह बहुत सुरक्षित है |घर दिखाने की लालसा में उसने
लोहे का दरवाजा खोल दिया |
जैसे ही बिल्ली अन्दर आई ,
मुंह से लार उसने टपकाई ,
फुर्ती से कूदी दाऊं पर ,
पंजे में कस कर पकड़ लिया ,
उसे भी पेट के हवाले किया |
सारे मकान खाली रह गये ,
तीनों चूहे नष्ट हो गए ,
बिल्ली मौसी से कोई भी नहीं बच पाया |तीनों की चतुराई बिल्ली के आगे न चल सकी

Monday, October 19, 2015

वह बालक




वह बालक

जब हम त्रिवेंद्रम में zoo में घूम रहे थे मैंथोडा पीछे रह गई |मैंने सोचा थोड़ा आराम करलूं |मैं एक बेंच पर बैठ गई |
इतने मैं स्कूली बच्चों का एक समूह उधर से गुजरा |वे जू देखने अपने स्कूल की तरफ से आये थे |थोड़ी देर
बाद हम चल पड़े |हम जानवरों को देखते हुए  धीरे धीरे आगे बढ़ने लगे |
मेंने देखा की की एक बच्चा मुझसे कुछ कहना चाहता था |नाम पूछने पर उसने अपना नाम राज बताया |इतने मैं एक बन्दर ने जोर से दूसरे पेड़ पर छलांग लगाई  |राजू खुशी से चहका "beautiful"|कुछ समय बाद वह हमारे साथ
साथ चलने लगा |जैसे ही नए पक्षी या जानवर को देखता बोलता "ब्यूटीफुल " या "फाईन "|वह ना तो हिंदी जनता थाऔर ना ही अंग्रेजी |मैने सोचा शायद स्कूल के बच्चों में से कोई पीछे छूट गया है |साथ चलते चलते वह इशारों से
व टूटी फूटी भाषा में मुझसे बातें करने लगा |उसने मुझे बताया की छह भाई बहिनों में वह सबसे बड़ा है |उसे उनकी देखभाल भी करना पड़ती है |गरीबी के कारण अब वह स्कूल नहीं जाता |
खैर लगभग दो घंटे तक वह हमारे साथ रहा |उसके घर की करुण कथा सुन मुझे उसपर बहुत दया आ रही थी |
और तो और उसकी भोली सूरत और इशारे से जू का रास्ता गाइड करना बड़ा अच्छा लग रहा था | जब हम बाहर निकलने लगे, मैंने उसे ५ रुपये देने चाहे | उसके मुह से निकला."नो! बस इतना ही? इन्होंने उसे १० रुपये दे दिए |
जैसे ही उसे रुपये मिले, वह गेट के पास पहुँचकर आइस कैंडी खरीदने लगा | उसने हमें बाय कहा और सीधा भाग खड़ा हुआ |
मैंने सोचा भी ना था कि इतना सा बच्चा हमें सरलता से बुद्धू बनाकर पैसे ऐंठ लेगा | फिर भी जब कभी वह किस्सा याद आता है तो उसके शब्द "ब्यूटीफुल" और "फाइन" कानों में गूँजने लगते हैं | उस छोटे गाइड को अभी तक नहीं भूल पाई हूँ | अभी भी आइस क्रीम दिखाकर उसका हाँथ हिलाना और कहना,"अंकल यह देखो !" फिर भाग जाना मुझे याद आता है |

आशा

Sunday, October 18, 2015

ऐसे देखा वन राज





ऐसे देखा वनराज

मुझे नई जगह देखने और नए स्थानों पर घूमने मेंबहुत आनंद आता है |कुछ समय पूर्व गुजरात जाने का अवसर मिला |सोमनाथ और द्वारिका जाना है ,सोच कर ही मन प्रफुल्लित होने लगा |जल्दी ही आरक्षण भी करवा लिया |
जैसे ही ट्रेन चली ,लगा बहुत दिनों की तमन्ना बस पूरी हुई जाती है |ट्रेन की गति के साथ ही मन भी कल्पना जगत में विचरण करने लगा |कब नींद आई पता ही नहीं चला |जब नींद खुली अहमदाबाद आने वाला था |जल्दी से
सामान समेटा और स्टेशन पर उतर गए व् बस स्टॉप की और चल पड़े |
द्वारिका जाने वाली बस तो जा चुकी थी |सोमनाथ जाने वाली बस रात को आठ बजे जाती थी |अतः दिन भर अहमदाबाद घूमा |ठीक समाय पर बस स्टॉप आ कर अपनी आरक्षित सीट पर बैठ गए |इतने थके हुए थे कि पता ही नहीं चला कि कब अहमदाबाद पीछे रह गया |
नींद के आगोश में ऐसे खोये कि बेरावल आ कर ही आँख खुली |वहां से सोमनाथ के लिए एक मोटर साइकल
पर बने टेम्पो की सबारी की और गन्तब्य तक पहुंचे |सुबह कि ठंडी हवा ,समुद्र का किनारा और मीठा नारियल
पानी ,मन को बहुत भाया |पास के ही होटल में ठहर कर थोडा विश्राम किया और सोम नाथ जी के दर्शन किये |
अब हमारे पास सारा दिन पड़ा था |सोचा क्यों न गिरी अभ्यारण्य जाएं | होटल वाले ने टेक्सी की व्यवस्था कर
दी |हम फिर से बेरावल होते हुए गिरी अभयारण्य की और चल दिए|
चारो और हरियाली और पक्षियों का कलरव ,मन में उत्साह भरने लगा |रास्ता कब कट गया पता ही नहीं चला |
वहां जा कर टिकिट खरीदे और सफारी में जाने के लिए अपने नम्बर का इंतजार करने लगे |इंतज़ार के ये क्षण
बहुत कठिन थे |कुछ लौट कर आने वालों से पता चला कि वे सिंह नहीं देख सके |वह शायद भोजन कर कहीं निकल गया था |
मन में उदासी छाने लगी |सोचा यदि वनराज ही नहीं दिखा तो इतनी दूर आने से क्या लाभ |इतने में जीप आ
गयी और उस पर सवार हो अपने गंतब्य कि और चल पड़े |हमारे साथ ८ लोग और भी थे |साथ आया गाइड बता
रहा था "रात को सिंह राज ने बड़ा शिकार किया था |अब कहीं सो रहा होगा |मैं यदि सिंह के दीदार न करा पाऊं
तो कैसा गाइड ?आप तो निश्चिन्त रहो साहब वह हमें जरूर मिलेगा |"
जीप में अब हम छोटी २ पगडंडियों पर घूम रहे थे |चारों और धूलही धूल,हरियाली तो केवल नदी के किनारे ही
थी |बड़े पेड़ जरूर दिखाई दे रहे थे |एक जीप लौट कर आ रही थी |गाइड ने उससे बात कीऔर तुरंत ही अपना रास्ता बदलने को कहा |हम लोगों को सुई पटक सन्नाटा बनाए रखने को कहा |जीप की गति बहुत धीमी करवा ली |
जैसे ही जीप रुकी हमने देखा कि लगभग १० फिट कि दूरी पर वनराज सोया हुआ था |उसके विशालकाय शरीर
में
न तो कोई हलचल थी न ही आवाज |वह शिकार खा कर दोपहर कि धूप का आनंद ले रहा था |उसने धीरे से आँखे
खोलीं ,इधर उधर देखा और फिर से सोने कि मुद्रा में आ गया |कल्पना के परे था कि इतना शांत वन राज होगा |तभी गाइड नीचे उतरा और एक छोटा सा कंकड उसकी और फेका |वनराज ने सर उठाया ,हुनकर भरी और फिर आँख बंद कर ली |
हमारी जीप धीरे २ रेंगने लगी |वनराज पर इसका कोइ प्रभाव नहीं था |वह तो अपने आराम में इतना ब्यस्त था कि किसी का आना जाना उसके लिए बेमानी था |उसका आकार प्रकार देखते ही बनता था |सच में वन का राजा अपने आप में बेमिसाल था |
फिर जीप ने गति पकड़ी और आधे घंटे बाद हम गिरी अभयारण्य के बाहर थे |आज भी वह द्रश्य आँखों के सामने
घूम जाता है |
आशा

Saturday, October 17, 2015

रानू बंदरिया


रानू बंदरिया

राज कुमार राज बर्मन को जंगल में घूमना बहुत अच्छा लगता था |वह जंगल में घूमता और अपने को प्रकृति
के आँचल में छुपा लेता |हरियाली और पशु पक्षी उसकी कमजोरी थे |वहां जा कर उसे बहुत शांति का अनुभव होता था |
वह स्वभाव से बहुत संवेदनशील और दयालू था |वह किसी का भी दुःख सहन नहीकर पाताथा |
एक दिन जब वह घूम रहा था ,उसने एक बंदरिया को कराहते देखा |शायद किसी शिकारी के बाण से वह घायल होगयी थी |राज ने तुरंत बंदरिया को गोद में उठा कर पैर में से तीर निकाला और उपचार किया |फिर उसे उसके कोटर तक छोड़ आया |
पर रात भर वह सो न सका |बारबार उसे बंदरिया का ही ख्याल सताता रहा |सुबह होते ही वह जंगल की ओर
चल दिया |रानू बंदरिया बाहर बैठी थी |जैसेही उसने अपने बचाने वाले को देखा ,तुरंत उसे बुलाया और अपने कोटर में आने को कहा |
जैसेही राजकुमार अंदर आया ,वहाँ की सुंदरता देख कर हतप्रभ रह गया |उसने देखा की एक बहुत सुंदर लड़की
उसके सामने बैठी थी और उसके हाथ में व् एक पैर में वही पट्टी बंधी थी |बहुत आश्चर्य से राज ने देखा और उसका नाम पूंछा | पहले तो वह शरमाई फिर कल के लिए धन्यवाद दिया और अपना नाम रानू बताया |
राज से रहा नहीं गया और बन्दर का रूप धरने का कारण जानना चाह |रानू ने कहा ,"मैं भी आप के समान ही
एक राजकुमारी हूँ |पहले बहुत सुख से रही |एक दिन जब मैं जंगल में घूम रही थी एक राक्षस ने मुझे पकड़ कर
यहां कैद कर लिया |तभी से मैंयही पर कैद हूं "|
राजकुमार रानू की सुंदरता पर ऐसा मोहित हुआ की शादी की इच्छा उसके मन मैं उठने लगी |वह अक्सर
वहां जाने लगा और एक दिन शादी का प्रस्ताव रखा | रानू भी मन ही मन उससे प्रेम करने लगी थी |
इस लिए उसने एक शर्त पर शादी के लिए हां की |उसने कहा,"मैं दिन भर बन्दर के ही रूप मैं रहूंगी "|राज को क्या
आपत्ति हो सकती थी |दोनों ने शादी कर ली |
राजकुमार अपनी पत्नी के साथ अपने घर आ गया |सबने बंदरिया को देख बहुत हंसी उड़ाई |दूसरे दिन रानी
ने सब को बुलवाया और एक एक बोरा गेहूं बीनने को दिए |रानू ने अपने हिस्से के गेहूं अपने कमरे में रखवालिए
|रात को वह उठी और अपना चोला उतार कर गेहूं बीन कर फिरसे अपने पलंग पर सो गयी |बिने हुए
गेहूं देख कर सब को बहुत आश्चर्य हुआ | तीसरे दिन चक्की पर आटा पीसना था |रात को उठ कर उसने अपना चोला
उतारा और चक्की पीसने लगी |रानी ने धीरे सेखूटी पर
टंगा चोला उठा कर छुपा दिया |
जैसेही काम समाप्त हुआ रानू ने अपना चोला खोजा |वह नहीं मिला |उसे बहुत गुस्सा आया | वह रोने लगी |
इतने में राजकुमार की नींद खुल गई |राज ने रोने का कारण पूंछा | जब सारा माजरा समझा ,जोर जोर से हँसने लगा
और रानू को समझाया की अब इस रूप मेंरहने की क्या आवश्यकता है ,राक्षसतो कब का मर चूका |रानू को विश्वास
नहीं हुआ |धीरे धीरे जब राज की बात समझ आई तब बड़ी मुश्किल से वह सोई |
सुबह उठ कर उसने सबके पैर छुए |सबने उसे बहुत सारे उपहार दिए और ढेरसा आशीर्वाद| यह सच है की कोई
भी काम सरलता से किया जा सकता है यदि मन में पक्की इच्छा हो |अब वे दोनों जंगल में जाकर प्रकृति का आनंद
लेने लगे और जरूरत मंद की सेवा करने लगे |रानू अब बहादुर होगई थी और किसी से नहीं डरती थी |
आशा

Friday, October 16, 2015

संजा




संजा

एक राजा के दो बेटी थीं|एक का नाम चंचल और छोटी का नाम संजा था |रोज उन्हें पढाने एक
शिक्षक आते थे |वे चंचल को नेक वक्त और संजा को कम वक्त कहते थे |जब भी रानी यह सुनती
उसे बहुत बुरा लगता |आखिर उसने गुरूजी से पूँछ ही लिया की वे ऐसा क्यों कहते है | वे बोले संजा बहुत
भाग्य हीन है |यह सुन कर माँ को बहुत बुरा लगा |उसने संजा की बुरी छाया से सब को बचाने के लिए
जंगल में अपनी बेटी के साथ रहने का निश्चय किया |रात के अँधेरे में ,संजा को ले कर वह जंगल की और
चल पड़ी | थोड़ी दूर जाने पर भयंकर काली रात में जंगली जानवरों की आवाज ,उबड खाबड़ रास्ते पर चलना
दूभर हो गया |संजा को जोर से प्यास लगी |माँ बेटी पानी की तलाश में इधर उधर भटकने लगीं |
काफी दूर उन्हें एक बड़ा दरवाजा नजर आया |संजा ने माँ से कहा की वह अभी पानी ले कर आती है |
संजा ने जैसे ही उस घर में प्रवेश किया ,दरवाजा अपनेआप बंद हो गया |
बहुत कोशिश करने पर भी दरवाजा नहीं खुला |हार थक कर माता उसे अपनी किस्मत के भरोसे छोड़ कर
घर लौट गई |
संजा ने देखा की वहां कोई नहीं था |उसने धीरे धीरे एक कक्षा में कदम रखे |वहां एक पलंग पर सुइयों से
भरी हुई एक व्यक्ति की लाश पड़ी थी |वह पलंग के नजदीक बैठ कर धीरे धीरे उन सुइयों को निकलने लगी |
एक दिन राह पर चलते किसी कीआवाज सुन वह ऊपर बरामदे में गई |बेचने वाला एक दासी को बेच रहा था |
अपने अकेले पन से तंग आकर संजा ने उसे खरीद लिया |बांदी का नाम रानी था |वह भी संजा की मदद करने लगी |एक सुबह संजा नहाने जाने के पहिले बोली की अब तुम कोई सी भी सुई न निकलना |बांदी को उत्सुकता हुई और
उसने आँखों पर लगी दोनो सुई भी निकल दीं |वह राजकुमार राम राम कर उठ बैठा |सामने एक लड़की को देख
उसका नाम जानना चाहा | बांदी थी बहुत चालक |वह राजकुमारी बन बैठी और संजा को अपनी नौकरानी बताया |
एक और करिश्मा हुआ |जैसे ही राज कुमार ने ताली बजाई ,सारे महल में चहलपहल हो गई |पर संजा नौकरानी ही बन कर रह गई |एक दिन राज कुमार मेले में जा रहा था |उसने सबसे अपनी अपनी पसंद की चीज मंगाने को कहा |रानी बनी बांदी ने अपने लिए छल्ले व् चुटील लाने को कहा | |पर संजा ने कठपुतली मंगाई |
अब रोज रात को कठपुतली का नाच होता |संजा कभी हंसती कभीं रोती और गाती "रानी थी सो बांदी हुई ,
बांदी थी सो रानी हुई "|संजा की आवाज बहुत मीठी थी |लोगों ने राजकुमार से पूंछा "इतनी रात गए कौन
गाता है |राजकुमार ने नींद से बचे रह कर अपनी ऊँगली काट ली और जाग कर गाने की राह देखने लगा
कुछ समय भी न बीता था कि उसे संजा की मधुर आवाज सुनाई दी| वह नीचे आया और इस गाने का रहस्य
जानना चाहा |संजा ने सारा राज उजागर कर दिया|राजकुमार को बहुत गुस्सा आया |उसने दरवाजे के ठीकसामने एक गड्ढा खुदवाया |नकली बनी राजकुमारी को उसमें जिन्दा गढ़वा दिया |
संजा के साथ शादी कर सुख से रहने लगा |
संजा के पिता को जब पता चला ,वे अपने आप को रोक न सके और बहुतसे उपहार ले कर अपनी बेटी से
मिलने आए | उसकी सम्पन्नता देख कर उनकी आँखे ख़ुशी से भीग गई |बच्चे का कोई भी नाम
लिया जाए ,जरुरी नहीं कि उसका प्रभाव जीवन पर होता है |
आशा

Tuesday, October 13, 2015

हज्जाम राम नारायण




हज्जाम रामनारायण

एक राजा था |उसका नाम आर्यमन था |एक दिन जब वह आईने में अपनी सूरत देख रहा था उसे अपने बालों के बीच दो सींघ दिखाई दिए |वह बहुत परेशान हो गया|उसे तो अभी बाल भी कटवाने थे |अब बिचारा क्या करता |
बहुत सोच विचार कर उसने अपने एक विश्वासपात्र नौकर को बुलबाया |एक ऐसे नाई को खोजने को कहा जो सींगों
के राज को अपने मन रख कर राजा की कटिंग बना सके |
बहुत खोज के बाद एक नाई राम नारायण को लाया गया |नाई बातों का बादशाह था |उसने राजा के बाल काटे
और सींघ की बात किसी से न कहने का वायदा किया |राजा ने बहुत सारा धन दे कर उसे विदा किया |उसकी पत्नी ने उससे सवाल किया की इतनी दौलत उसे कैसे मिली |रामनारायण बात को टाल गया |पर जब वह सोने लगा उसके
पेट में बहुत दर्द हुआ |रात भर वह बहुत परेशान रहा | दूसरेदिन वह पास के जंगल में गया और चौकन्ना हो कर इधर उधर देखने लगा |जब उसे विश्वास हो गया की उसके सिवाय वहां कोई नहीं है ,वह एक सूखे पेड़ के पास गया और अपने पेट की बात "राजाके दो सींग " पेड़ से कह कर अपने घर आ गया |
थोड़े समय बाद एक कारीगर तबला ,हारमोनियम और सारंगी बनाने के लिए उस पेड़ को काट कर ले गया |जब
सारे उपकरण बन गए ,कारीगर ने अधिक धन पाने की लालसा से उनका प्रदर्शन राज दरवार में करने के लिए राजा
आर्यावर्धन से अनुमति ली |राजा गाने आदि सुनने का बहुत शौक़ीन था |राजा ने दूसरे दिन आने को कहा |
दूसरे दिन कारीगर नियत समय पर राजसभा में अपने बनाये हुए बाजों को ले कर उपस्थित हो गया |राजा की
अनुमति मिलते ही कारीगर ने हारमोनियम पर सुर छेड़ा | हारमोनियम में से सुर निकला "राजा के दो सींग "
सारंगी ने कहा "किनने कही ,किनने कही "| तबला बोला "दुमदुम हज्जाम ने,दुमदुम हज्जाम ने "|
ये शब्द सुन कर राजा गुस्से से लाल पीला होने लगा |उसने तुरंत अपने नौकर को बुलाया | नौकर को डाट कर
रामनारायण नाई को को बुलाने को कहा |नौकर तुरंत उसे बुला लाया |राम नारायण थर थर कांपने लगा |उसने
कहा "महाराज मेरा क्या कसूर है |मैने ऐसा क्या किया है जो आपने मुझे बुलबाया"|
" सच बताओ मेरे राज की बात तुमने किसे बताई थी "राजा ने बहुत गुस्से में आकार उससे पूंछा |
रामनारायण ने कहा "महाराज मैंने तो किसी से भी कुछ नहीं कहा "|राजा को उसकी बात पर विश्वास नही हुआ |
बहुत सख्ती करने पर नाई सोच कर बोला"महाराज मेरी नानी कहती थी की जब कोई बात पेट में न पचे और
पेट बहुत दुखे तब उसे किसी बेजान पेड़ से कह देना चाहिए |न तो बात फैलेगी और न ही पेट दुखेगा |मेरे पेट में
बहुत दर्द हो रहा था |इसी कारन मैंने पेड़ से यह राज कहा "|राजा ने पूंछा "यह दुमदुम हज्जाम कौन है "?
रामनारायण ने बताया की जब वह बहुत छोटा था उसकी नानी उसे दुमदुम कहा करती थी |इसीलिए उसे
दुमदुम हज्जाम के नाम से भी जाना जाता है |किसी ने सच ही कहा है."राज को राज ही रहने दो |दीवारों के भी
कान होते हें "|
आशा

मुमताज की तलाश

26 जनवरी, 2010

मुमताज़ की तलाश...

बात बहुत पुरानी है, पर आज भी सोचने पर हसी आ ही जाती है...

कॉलेज का वार्षिकोत्सव होने को था।श्री अवस्थी ने एक एकांकी लिखा और उसके मंचन हेतु उपयुक्त पत्रों की खोज प्रारंभ की।सभी महत्त्वपूर्ण और प्रमुख भूमिका करना चाहते थे।लड़कियों में भी चर्चा ज़ोरों पर थी।अलग अलग व्यक्तित्व वाली लड़कियों में मुमताज़ की भूमिका पाने की होड़ लगी हुई थी। सकारण अपना अपना पक्ष रख कर उस किरदार में अपने को खोजने में लगी हुई थीं।

साँवली सलोनी राधिका थी तो थोड़ी मोती, पर शायद अपने को सबसे अधिक भावप्रवण समझती थी। वह बोली, "ये रोल तो मुझे ही मिलना चाहिए। जैसे ही मैं इन संवादों को बोलूंगी, तो सब पर छा जाऊंगी।" चंद्रा उसके बड़बोलेपन को सहन नहीं कर सकी और उसने पलट वार किया, "जानती हो, मुझसे सुन्दर पूरे कॉलेज में कोई नहीं है। मुमताज़ तो सुन्दरता की मिसाल थी। अतः इस पात्र को निभाने के लिए मैं पूर्ण रूप से अधिकारी हूँ।"

शीबा कैसे चुप रह जाती? बोली, "वाह! मैं ही मुमताज़ का किरदार निभा पाऊंगी। जानती हो, मुझसे अच्छी उर्दू तुम में से किसी को नहीं आती। यदि संवाद सही उच्चारणों के साथ न बोले जाएँ तो क्या मज़ा?"

राधिका तीखी आवाज़ मैं बोली, "ज़रा अपनी सूरत तोह देखो! क्या हिरोइन ऐसी काली कलूटी होती हैं?!"

सुनते ही शीबा उबल पड़ी, "तुम क्या हो, पहले अपने को आईने में निहारो। बिल्कुल मुर्रा भैंस नज़र आती हो।"

"अजी, बिना बात की बहस से क्या लाभ होगा? देख लेना, सर तो मुझे ही यह रोल देंगे। मैं सुन्दर भी हूँ और... प्यारी भी।", मोना ने अपना मत जताया।

"बस बस। रहने भी दो। ड्रामे में हकले तक्लों का कोई काम नहीं होता। हाँ, यदि किसी हकले का कोई रोल होता, to शायद तुम धक् भी जातीं।", मानसी हाँथ नचाते हुई बोली।

इसी तरह आपस में हुज्जत होने लगी और शोर कक्ष के बाहर तक सुनाई देने लगा।बाहर घूम रहे लड़के भी कान लगाकर जानने की कोशिश में लग गये की आखिर मांजरा क्या है?

इस व्यर्थ की बहस की परिणीती देखने को मिली सांस्कृतिक प्रोग्राम में।

पर्दा उठा और हास्य प्रहसन "मुमताज़ की तलाश" की शुरुवात हुई।

एक भारी भरकम प्रोफेस्सर मंच पर अवतरित हुए। वह अपने नाटक की रूप रेखा बताने लगे। फिर आयीं भिन्न भिन्न प्रकार की नायिकाएं और अपना अपना पक्ष रखने लगीं मुमताज़ के पात्र के लिए।

फिर पूरा मंच एक अपूर्व अखाड़े में परिवर्तित हो गया और बेचारे प्रोफेस्सर साहब सिर पकड़कर बैठ गये। उनके मुख से निकला, "हाय!!! कहाँ से खोजूं मुमताज़ को?! यहाँ तो कई कई मुमताज़ हैं!"

और पटाक्षेप हो गया।

Saturday, October 3, 2015

हाथी और सियार

हाथी और सियार के लिए चित्र परिणाम

हाथी और सियार :-
एक जंगल था |वहां एक हाथी रहता था |वह बहुत सीधा और शांत था |घूमते घूमते वह एक सियार से मिला |सियार से उसकी दोस्ती हो गई |वे अक्सर मिलते आपस में बातें करते | नदी किनारे जब तब जाते |
हाथी ने नदी के पार बड़े बड़े खरबूज देखे |सियार के मुंह में तो पानी आने लगा |वहां कैसे पहुंचा जाए सोचने लगे |हाथी के कहा “सियार तुम मेरी पीठ पर बैठ जाओ |हम उसपार चले जाएगे “| सियार मान गया और
चुपचाप हाथी के ऊपर बैठ गया |दौनो नदी पार पहुंचे |सियार ने खरबूज खाना प्रारम्भ किया और सारे  खा गया|
हाथी के लिए कुछ भी न छोड़ा |हाथी को उसका स्वार्थीपन अच्छा नहीं लगा पर कुछ न बोला |
दूसरे दिन फिर सियार ने उस पार जाने की बात की |हाथी तैयार हो गया |वह सियार को सबक सिखाना चाहता था |उसने सियार से कहा “तुम चुप चाप खाना  खाना पर आवाज नहीं निकालना |पर सियार कम न था |
जानबूझ कर पेट भरते ही जोर जोर से आवाजे निकालने लगा |जैसे ही खेत का मालिक आया वह तेजी से भाग खडा हुआ |हाथी बहुत मोटा  था भाग न सका और रखवाले ने उसे बहुत मारा |
शाम होते ही सियार आ गया और बापिस चलने को कहा |हाथी उससे गुस्सा था और बदला लेना चाहता था |
उसने पीठ पर बैठने को कहा और बीच नदी में आते ही बोला “मुझे बहुत गरमी लग रही है|मेरा मन नहाने का हो रहा  है “ इतना कहकर वह पानी में लोटने लगा |शुरू में तो सियार उसे कस कर पकडे रहा पर जल्दी ही डूबने लगा और कहने लगा “बचाओ मुझे बचाओ “
    हाथी बोला अरे आवाजें निकालो कोई तो तुम्हारी मदद को आही जाएगा |और आगे बढ़ने लगा |
सियार को अपनी गलती का अहसास हुआ |वह रोने लगा और मांफी माँगने लगा |हाथी मन से दयावान था
उसने उसे नसीहत दी और कहा आगे से कभी ऐसा न करना किसी को धोखा न देना |सच्चे मित्र एक दूसरे का साथ देते है |कभी दगा नहीं करते |

आशा