अमृत कलश

Saturday, December 8, 2012

नया खेल

आओ  ऐसा खेलें खेल 
जिससे  बढे सभी मैं मेल 
रामू तुम रूसी बन जाओ 
पप्पू बन अमरीकी जाओ 
तुम चीनी बन जाओ चुन्नू 
जापानी तुम होगे मुन्नूं
लंका वासी लल्लू होगा
तुम भोला मिश्री बन जाओ 
अकरम पाकिस्तानी आओ 
हम तुम ऐसा खेलें खेल
जिससे बढे सभी मैं मेल 
अब मैं बनूँ हिन्द  का लाल
पंचशील की ले कर ढाल  
आगे  कदम बढ़ाऊंगा 
विश्व शान्ति फैलाऊंगा 
तुम सब भी आगे बढ़ आओ
 सद् भावना ह्रदय मैं लाओ
पुन्य कर्म मैं हाथ बटाओ 
अमर  मित्रता मैं बंध जाओ 
आओ ऐसा खेलें खेल 
जिससे बढे सभी मैं मेल 
हम सब बन कर भाई भाई 
दूर करें सब की कठिनाई 
देश हमारे हरे भरे हों 
अन्न और धन से पूरे हों 
कोई रहे न नंगा भूखा 
कोई रहे न गीला सूखा 
एक सामान सभी सुख पावें
सबसे ऊंचा नाम कमावें 
आओ ऐसा खेलें खेल 
जिससे बढे सभी मैं मेल |






Wednesday, August 1, 2012

राखी आई राखी आई 
घेवर फेनी की ऋतुआई 
रिमझिम बरस रहे है बादल 
चमक चमक बिजली करती छल 
रंग बिरंगे फूल खिले हैं 
पेड़ों को नव पात मिले हैं 
बन में मोर पपीहा बोले
कुहुक कुहुक कोमल रस घोले 
माता  ने रस्सी मंगवाई 
भैया ने पटली बनवाई 
बाबूजी  ले आए लहरिया 
और रेशमी जम्पर बढ़िया 
पड़ा  आम पर झूलाप्यारा 
जिस पर झूल रहा घर सारा 
सखी सहेली सब जुड़ आईं
हिल मिल खूब मल्हारें गईं 
सूत कात राखी बनवाई 
नारियल  और मिठाई लाई 
पान बताशे रोली चावल 
जलता दीपक रखा झिलमिल 
दादा भैया सब मिल आए 
बहनों को सौगातें लाए 
टीका करके राखी बांधी 
किया आरता साधें साधी
भाइयों  से आशीषें पाईं 
झोली  भर मोहरें ले आईं 
खुश खुश बहनें झूल रही हैं 
खिली कली सी फूल रही हैं 
जुग जुग जीवे  प्यारे भैया
हम लें उनकी सदा बलइयां |

डा.ज्ञानवती सक्सेना "किरण"








Tuesday, July 24, 2012

लेखा जोखा

  एक बीहड़ वन में बहुत पुराना बरगद का एक पेड़ था |उस पेड़ की जताएं उतर कर यहाँ वहाँ पृथ्वी पर धस गईं थीं इन |प्राकृतिक स्तंभों पर पेड़ के पत्तों ने वितान सा तान दिया था |जिसके कारण वहाँ बहुत मनभावन सुहानी हरियाली छाई रहती थी |दूर दूर के बटोही वृक्ष की सघन छाया में घंटे दो घंटे विश्राम करके आगे बढ़ते थे |   एक दिन एक थका हारा बटोही आया
|उस बड़े पेड़ की शीतल छाया में लेटते ही उसे नींद आगई |उस बरगद की जड़ में से एक सर्प निकला और सरसराता हुआ सोते हुए बटोही के पास से निकल गया |उसके मुहं में  कोई पीली सी चीज चमक रही थी शायद किसी धातु का टुकड़ा था |
ज्यूं ही वह बटोही के पास से गुजरा बटोही की आँख खुल गयी |नाग को देख कर उसके प्राण सूख गए |वह बिना हिलेडुले लेता रहा |नाग देवता ने थोड़ी दूर जाकर अपने मुंह में से एक गोल चमकती हुई वस्तु धरती पर छोड़ दी और स्वयं अपनी बांबी में लौट गए |
   बटोही ने उत्सुकता वश जा कर देखा तो वह एक स्वर्ण मुद्रा थी |वह ओने स्थान पर बापिस आया
और एक ऊंची डाल पर बैठ कर ध्यान से देखने लगा |कुछ समय बाद वह नाग फिर से अपने बिल से बाहर आया |उसके मुँह में वैसी ही स्वर्ण मुद्रा और थी |वह उसी स्थान पर आया और मुद्रा डाल कर चला गया |इस प्रकार दो सौ स्वर्ण मुद्राएं उसने अपने बिल के पास एकत्र कर दीं |
बटोही चित्र लिखा सा यह व्यापार देखता रहा |इतने में दिन ढल गया औरअस्ताचलगामीसूर्य रश्मियां सारे वन्य प्रदेश पर छा गईं |उस सुनहरी  आभा से वह स्वर्ण ढेर जगमगा उठा और बटोही की आँखें चौधिया गईं |
जब वह बहुत देर तक फिर बाहर नहीं आया  तो बटोही ने उनसब मुद्राओं को एक रूमाल में बाँध लिया और घर की ओर चल पड़ा |अब उसे यह चिंता सताने लगी कि इतनी बड़ी धनराशि ले कर वह जंगल का रास्ता कैसे तय करे |छोर डाकू उसे लूट लेगे तो वह क्या करेगा |तभी उसे एक पुराने परिचित की याद आई |वह पास ही के गाँव में रहता था |उसी के यहाँ रात बिताने का निश्चय किया |
  गृह स्वामी ने बटोही की बड़ी आवभगत की |भोजन के बाद पलंग बिछा दिया और सब सो गए |रात के अँधेरे में संशयात्मक बटोही की आँखों में नींद न थी वह अपनी पोटली की चिंता में लीन था |उसे व्याकुलता इस बात की थे कि कोई उसकी पोटली चुरा न ले ||वह धीरे से उठा और पास ही पड़ी तेल की हंडिया में वह मोहरों की पोटली डाल दीऔर चैन से सो गया |
     देव योग से अर्ध रात्रि को गृह स्वामीकी पुत्रवधू ने बालक को जन्म दिया |उपचार में तेल की आवश्यकता पड़ी तो तेल की वही हांडी अंदर लजाई गयी |जब तेल उडेला गया तो सामने मोहरों की वह पोटली आपदी और मोहरें बिखर गईं |आश्चर्यचकित ग्रिह्स्वामिनीं ने जाना कि यह बालक बहुत ही भाग्यशाली है |संपदा साथ लाया है |और भगवान को कोतिशय धन्यवाद दिया |फिर पोटली सम्हाल कर घर में रख दीऔर हांडी अपने पूर्व स्थान पर पहुंचा दी | प्रातः झुटपुटे में ही वह बटोही उठा और अपनी माया निकालने के उद्देश्य से हांडी टटोली |वह तो बिलकुल रीती पडी थी |वह किसी को कहता भी तो क्या उसने किसी को कुछ बताया तो था नहीं | वह कुछ सोच कर उसी बरगद के पेड़ के नीचे पहुंचा और धाड़ मार मार कर रोने लगा |वह कहने लगा "हे नाग देवता मैं अभागा था जो आपने दिया उसे सजा कर नहीं रख सका अब कृपा करो फिर से निहाल करदो | यह सुन कर नाग बिल से निकला और एक मुद्रा ला कर बाहर रख दी |थोड़ी देर बाद एक और मुद्रा ला कर वहाँ रख गया |और फिर बाहर नहीं निकला | लोभी बटोही चिरकाल तक वहाँ बैठा रहा ,रोता रहा और निहोरे करता रहा "दया करो नाग देवता दो सौ नहीं तो सौ ही कर दो अब ऐसी भूल कभी नहीं होगी "|किन्तु सब व्यर्थ गया इतने में बांबी में से गंभीर आवाज सुनाई दी "भोला प्राणी तू कितना सुखी था जब तक तूनें ये स्वर्ण मुद्राएं नहीं देखीं थीं किन्तु इन्हें पा कर तेरा चित्त कितना अशांत और विचलित हो गया है |यह संपदा अनर्थ की जड़ है तेरे मित्र के यहाँ जो बालक हुआ है उसका मैं दो सौ मुद्राओं का रिनी था |मैंने तेरे द्वारा उसकी संपत्ति उसके पास भिजवादी |ये मुद्राएं उसी के निमित्त थीं तू तो केवल साधन मात्र था |संसार का लेखा जोखा इसी भाँती पूरा होता रहता है |ये दो मुद्राएं तेरे लिएव हैं |बालक को जा कर उसकी थाथी उसे सूप देने का पारिश्रमिक है |केवल गाधी कमाई का ही पैसा फलता है पड़ा गिरा पाया माल किसी को नहीं फलता |इसी लिए धार लौट जाओ बटोही परिश्रम करके कमाओ और आनंद तथा ईमानदारी से जीवन निर्वाह करो "\ भय से चकित बटोही ने मुद्राएं अपने साफे में बाँध लीन और घर चला गया | ज्ञान वती सक्सेना "किरण "




Tuesday, June 26, 2012

किसकी भूल

बात बहुत पुरानी भी नहीं है और नई भी नहीं |जानी पहचानी और नित्य के व्यवहार की है
आदिकाल से चली आ रही अंत काल तक जाएगी |
न उसका विश्राम स्थल है ना ही अंत |विज्ञान के धुलनशील और ज्वलनशील तत्वों के सामान मनुष्य भी एक "भुलनशील "प्राणी है | विधाता का निर्माण तो सर्वश्रेष्ठ  है पर उसमें कुछ तो कमीं होनी ही चाहिये |
किन्तु जब वह चतुर विधाता भूल कर जाता है तो वह उसका खेल मात्र ही माना जाता है |
                    "समरथ को नहीं दोष गुसाईँ "
इन भावनाओं के साथ २ नानी दादी के मुँह से सूनी एक कहानी याद आ गई आज भी वह कहानी एक प्रश्न के रूप में अन्मुख आ अंतर में छा जाती है |
     क्या कृपालू पाठक उस प्रश्न को हल करने का यत्न करेंगे  ?
युग  युगान्तर की बात है एक समय एक निर्जन विपिन में किन्हीं महात्मा की कुटी थी |पास ही कल कल करती कालिंदी इठलाती बल खाती अवाध गति से बहती चली जा रही थी |आसपास आम करील जामुन के छोटे बड़े वृक्ष थे ,कादम्बरी जिनके ऊपर सदा ही अमृत वर्षा करती रहती थी |
      प्रातःऊषा काल में पक्षियों के मधुर कलरव के  स्वर में स्वर मिला कर योगी राज अपने आराध्य के चिंतन में लीन रहते |दोपहर में कुछवन्य फल फूल चुन कर अपने प्रभु को प्रेम से भोजन अर्पित करते और स्वयं उनका प्रसाद पाकर उत्फुल्ल मन से ग्रंथों के  अध्यन में. लीन हो जाते \
सांयकाल  को योगी राज दिन भर की दिनचर्या पर मनन करते हुए दूर तक घूमने के लिए निकल जाते |
वे  राधा रानी के पथ  के अनुयाई और भगवान मुरली मनोहर श्याम सुन्दर के अनन्य भक्त थे |भगवान की सावली सलौनी सहृदय सुन्दर और स्नेहिल मूर्ती की प्रत्यक्ष झांकी देखने को उनका हृदय व्याकुल रहता मन मोहन की मुरली की मधुर ध्वनि सुनने के लिए उनके कान उत्सुक रहते |अपने हृदय की व्यथा सुनाने के लिए उनकी आत्मा तड़पती रहती |दुर्भाग्य कहो या अनाड़ीपनयोगी के पास कोई ऐसा साधन न था जो अपने प्रियतम से साक्षात्कार करने  के लिए प्रयुक्त करते |
         भाग्यवश एक दिन दया माय प्रभु की अनुकाम्पा भ्रमण करते समय उन्हें दो विशाल मंदिर दृष्टिगोचर हुए |निर्जन विपिन में हटात् दो मंदिर देख कुछ चकित और उत्सुक हृदय से योगी राज वहाँ पहुँचे |हर्ष से उछलते हृदय को कठिनाईए से थाम कर उन्होंने दौनो मंदिरों का सूक्ष्म निरीक्षण \किकलाकार की कला पर योगी राज मोहित हो  गए | ग्रंथों में वर्णित वही सावली सलौनी सामान वस्त्राभूषणों से सुसज्जित दो प्रतिमाएं मंदिर में देख कर वे आनंद विभोर हो उठे इनमें वह पहिचान ही नहीं पाए कि |उनके नटनागर आनंद कंदश्री भगवान कृष्ण की कौनसी प्रतिमा है ?
    उदगार हृदय में ज्वार भाटे के सामान उमढे़ पड़ रहे थे कि कर्तव्य विमूढ़ से वे एक मंदिर में अनायास ही पहुँच गए |सामने मन लुभावनी सावरी प्रतिमा को देख कर वे अपना माँ भुला बैठे और लगे चरण पकड़ कर  अपनी व्यथा कथा दिखाने |
         नयनांजलि पुनीत चरणों का प्रक्षालन कर रही थी |हृदय व्यथा से व्याकुल था और वाणी अपने कर्तव्य में दृढता से संलग्न हो कर अपना कार्य कर रही थी |योगी ने जन्म जन्मांतर की पूंजी उन् पावन चरणों पर लुटा दी जितने उपालंभ देने थे दिए |चोर लुटेरा छलिया निर्दई निष्ठुर बताया |रोया मनाया और अंत में चरण पकड़ कर उनमें ही लीन हो गए  |किन्तु नाटो वह प्रतिमा उनके  कान्हा की थी  ना उनकी उस व्यथा कथा का कुछ फल ही निकला |
   वह प्रतिमा तो थी मर्यादा पुरुषोत्तम  राम की जहाँ हर काम कायदे क़ानून के अंदर  होता था | वे तो उसकी मूर्खता पर मंद मंद  मुस्कुरा रहे थे |
   किसकी भूल थी यह ,शिल्पी की ,योगी की या ग्रंथकार की क्या कोई बता पाएगा |

ज्ञान वती सक्सेना 'किरण'



Sunday, May 13, 2012

सेवा का फल

हिम श्रृंगों के बीच बसा इक ग्राम बड़ा ही मनहारी 
नंदा नगर नाम था जिसका दृश्य नयन को सुखकारी 
ऊंची नीची श्रृंग पंक्तियों पर थे छोटे छोटे घर 
कहीं कहीं थे खेत सलोने हरियाली दिखती सुन्दर 
था छोटा सा ग्राम पर उसमें  सारी सुविधाएं थीं 
मीठे जल के झरने थे दो धार दूध की गाएं थीं 
कुत्ते थे खूंखार बहुत पर पहरेदार निराले थे 
स्वामी की रक्षा में तत्पर इंगित पर मरने वाले थे 
किन्तु निर्दयी  ग्राम निवासी थे  गर्वीले और अनपढ़
उनके हथियार नुकीले पत्थर लोहे के अनगढ़ 
वे ना किसी परदेसी का स्वागत करना ही सीख सके  
कभी भिखरी की झोली में डाल ना कोई भीख सके 
उसी ग्राम में ऊंचाई पर एक झोपड़ी थी अभिराम 
विश्वनाथ नाम के एक बुद्ध रहते निष्काम 
फूल मती उनकी पत्नी थी शांत धेर्य की प्रतिमा सी 
उनका वहीं त्रिवेणी गंगा यमुना था तीरथ काशी 
उस कुटी के द्वारे पर थे खूबानी के सुन्दर झाड़
चारों ओर सुहाती उसके अंजीरों की सुन्दर बाढ़
झूल रही अंगूर लाता थी कुटी द्वार के बीचोंबीच 
गिरी श्रृंगों से उतरा झरना नित प्रति उनको देता सींच
 एक पुत्र था उस दम्पत्ति के किन्तु काल नेछीन लिया
लूटे हुए घर में सुख का कुछ और सहारा भी ना दिया
किसी भाँती सुख दुःख से अपना जीवन बिता रहे दौनों
बुरे भाग्य के लेख धैर्य से के हाथों मिटा रहे दौनों
सुरभि गाय थी एक दुधारू दौनों समय दूध देती
तृप्ति दान दे उस दम्पत्ति को उनसे स्नेहाशीष लेती
वे दम्पत्ति थे बुद्ध ,सदाचारी ,उपकारी ,ईश्वर भक्त
थे शरीर से भी, मन से भी ,किन्तु अपाहिज बड़े अशक्त
एक  दिवस गोधूली समय में कुत्ते भूंक  उठे नीचे
किन्तु  ग्रामवासी चुप बैठे रहे ,नयन अपने मींचे
बच्चे चीख रहे थे रह रह रौर  उठता चाहू ओर
कोहरा  गिरता ही जाता था अन्धकार छाया घनघोर
फूल  मती ने कहा ग्राम में आया दुर्भागी कोई
जिसे देख दया ,करुना ,ममता भी जा छिपकर सोई
विश्व नाथ चुपचाप नव आगंतुक का आना देख रहा
हो, वे अपने द्वार आगे ,उसने निज कर टेक कहा
जब  तक उठे उठे वह ,परदेसी कुटिया  पर आ पहुंचे
दिव्य  ,भव्य थे सुन्दर दौनों स्वस्थ बाली चौड़े ऊंचे
वे नर नारायण आए थे उचित व्यवस्था देने को
उनके धैर्य ,दया करुणा की कठिन परिक्षा लेने को
विश्व  बढ़ा आगे स्वागत कर उनको कुटिया में लाया
फूल मती ने आसान दे कर सादर उनको बैठाया
फिर भोजन की तैयारी में दम्पत्ति व्यस्त लगे फिरने
कांड मूल फल फूल मिले जो ला कर भेट लगे करने
वृद्ध विश्व ने अपने हिस्से का भी दूध दिया ला कर
फूल मती भी हर्षित थी अपने हिस्से का भी भोजन करवा कर
जब नर नारायण तृप्त हुए खा पी कर निद्रा ने घेरा
दम्पत्ति के जीर्ण बिछोनों पर डाला उनने अपना डेरा
निकट अग्नि के बैठ रात बितादी नयनों में
शीत ठिठुरते अंग जड़हो गए णा साहस बयनों में
 किन्तु तीसरे प्रहार अपनी निंद्रा ना रोक सके दौनों
लुधक गए वे पास पास ही भूखे ,श्रांत,थके दौनों
भोर  हुआ पक्षी वन बोले उषा मुस्काई चहु  ओर
क्षितिज  पटी पर चमक उठी थी ज्वलित सूर्य की स्वर्णिम कोर
सोये  पत्ते जाग उठे थे कलियाँ खिल आईं थी
नन्हीं दुर्वा ओस कणों से सज कर फिर इठलाई थी
हिम श्रृंगों पर अरुण प्रभा का ऐसा साज सजाती थी
मानो  सुन्दर लाल ओढ़नीओढ़ प्रकृति शर्माती थी
दम्पत्ति उठे चौक कर देखा अतिथि जाग कर बैठ गए
नए भोर की नई सुबह में दौनों थे नए नए
कुटिया बदल प्रसाद हुई धनधान्य भरे कोठे चहुँ ओर
अन्न  वस्त्र के ढेर लगे थे जिनका दीखता  ओर ना छोर
सुरती सुता सब बछड़े वाली बन कर दूध बिखेर रहीं
वृक्ष  फलों से लदे  खड़े थे कलियाँ सुरभि उड़ेल रहीं
दम्पत्ति के वे जीर्ण वस्त्र  दुर्बल तन जाने कहां  गए
दौनों  युवा बने फिर से दौनोएँ के पट नए नए
सुख सुविधा चहुओर लुटाते थे अपनी करुना अविराम
उस अंगूर लता पर छाए  गुच्छे बड़े बड़े अभिराम
वे दौनों इस नए  रूप में पा अपने को चौक पड़े
जैसे  थे वैसे ही भौंचक्के रहे जहाँ के तहां कड़े
नर नारायण ने  मुस्कुरा कर  उन्हें बुलाया अपने पास
है  बदला यह अतिथि धर्म का हम सच्चे सेवक के दास
यह कह कर दौनों  अन्तर्हित हो जाने कहाँ गए किस ओर
दम्पत्ति  रहे सोचते प्रभुकी कैसी अद्भुद करुण कोर
नंदा  ग्राम वासियों ने उनको अपना अधिपति माना
दया धर्म का मिलता है कितना सुन्दर फल पहिचाना
बच्चों यदि इसी भाँती अपना धर्म जान जाओगे तुम
सेवा करके अभ्यागत की मन में नित सुख पाओगे तुम
तो प्रभु तुम पर दया करेंगे जग में नाम कमाओगे
प्रभु से सच्चा बदला उसका इसी भाँती तुम पाओगे |

 
किरण





























Friday, April 27, 2012

चाँद और भारत के लाल

वह सागर सुत कहलाता है ,ये धरती के लाल 
उससे अंधियारा घबराता ,इनसे डरते काल |
वह रजनी के शांत अंक में ,पन्द्रह दिन को खो जाता 
ये हर दम सचेत रहते हैं ,सुख से भी तोड़ा नाता |
वह तारों को ही प्रकाश दे ,उनका सदा बढ़ाता मान 
ये  भारत के हर लाल को ,स्नेह शील का देता ज्ञान |
उसका तो  यश रजनी गंधा ही ,बस  कहने वाली है 
इनके  यश की मधुर सुरभि ,इस विश्व वृक्ष की लाली है |
वह केवल शीतलता का ही ,एक शील वृत्त धारी है 
पंचशील धारी सन्यासी ,इनकी महिमा न्यारी है \|
वरुण देव के शांत अंक में ,उसने संरक्षण पाया 
सत्य  अहिंसा के प्रतीक ,बापू का इनने संरक्षण पाया |
उन्शें देख चकवी रोती है ,कली  कली शर्माती है
इन्हें देख सब प्रमुदित होते ,माँ की पुलकित छाती है |
उसमें है कलंक की छाया ,निष्कलंक कहलाते ये 
वह सुर ये मानव फिर भी ,उसमें इनमें नाते हैं \
भारत  माँ के पार्श्व देश में ,जो सागर है लहराता 
नाम पिता का इनके ,उसकी बूँद बूँद में मिल जाता |
चाँद और मोती ही, भ्रातृ भाव यों फैलाते
एक  अंक में पले बढ़े,ये सगे सहोदर कहलाते |
इस  नाते से चन्दा मामा ,नेहरू जी का है चाचा
भारत के बच्चे बच्चे गाते ,जय जय नेहरू चाचा |
किरण














Sunday, March 18, 2012

उत्साही एकलव्य (समापन किश्त )

प्रातः उठ मिट्टी से 
गुरु प्रतिमा का निर्माण किया 
करी प्रतिष्ठा प्रेम भाव से 
भेट चढा सम्मान किया 
नित्य गुरु को कर प्रणाम 
अभ्यास सदा करता था वह 
लक्ष्य भेद कर नित्य नए
नव ज्ञान सदा वार्ता था वह 
इस भाँती बहुत दिन बीत गए 
इक दिन वह शुभ अवसर आया 
जब ऋषिवर ने नए शिष्य  का
था अपने परिचय पाया 
गुरु द्रौंण संग में शिकार को 
कौरव पाण्डव आए थे 
सब सामग्री साथ लिए 
कुत्ता भी संग लाए थे 
वह कुत्ता जब अकस्मात 
उस जंगल के भीतर आया 
देखा अभूत वेश वीर का 
वह जोरों से चिल्लाया 
लक्ष्य भंग हो गया क्रोध से 
एकलव्य ने तब देखा 
सात  तीर भर दिए कंठ में 
अभूत दृश्य गया लेता 
मुख में तीर भरे कुत्ता वह 
निज स्वामी के निकट गया 
उसकी दशा देख कर
 सबके उर में छाया क्रोध नया
उस कुत्ते के पीछे पीछे 
सब निषाद सुत तक आए 
कौन  गुरू का शिष्य अरे तू 
यह कह कर सब झल्लाए 
कर प्रणाम अति नम्र भाव से 
वह बोला मैं धीवर सुत 
सीख  रहा हूँ गुरु द्रौण  से
शास्त्र  अस्त्र विद्या संयुक्त
गुरु का नाम सुन अर्जुन को
बहुत ह्रदय में दुःख हुआ
हो उदास यूँ लौटा जैसे
घायल दिल का घाव छुआ
कहा गुरु से आ कर सब कुछ
गुरु अचंभित हो बोले
मेरा शिष्य न कोइ अंतज्य
व्यर्थ झूट वह क्यूँ बोले
अर्जुन बोले साथ चलें गुरु देव
तुम्हें बताऊँमैं
धीर वीर एकलव्य को
चल कर तुम्हें दिखाऊंमैं
किन्तु एक भिक्षा यह मुझको
गुरु देव देनी होगी
गुरु दक्षिणा मेरी इच्छा से
गुरु वर  लेनी होगी
द्रोणाचार्य गए देखा
अपनी  प्रतिमा का मान वहाँ
अद्भुद  गुरु भक्ति को लख कर
भूले सब वे मान वहाँ
हो कर गद् गद् कहा
पुत्र  हम  हैं तुमसे  प्रसन्न भारी
गुरु  दक्षिणा देने की भी
कर ली क्या कुछ तैयारी
उसने कहा गुरु की आज्ञा पर
सब कुछमैं भेट करू
यदि  इच्छा हो तो चरणों में
यह मस्तक भी काट धरूं
 दक्षिण कर का एक अंगूठा
ही  तुम मुझको दे जाओ
गुरु आज्ञा पर उसी समय
दी भेट ,अंगूठा काट वहाँ
ऐसे गुरु भक्त देखे हैं
 बोलो बच्चों और कहाँ
सच्ची निष्ठा जग में सब कुछ
करके हमें, बताती है
लग्न और उत्साह
हृदय में नई शक्ति उपजाती है
एकलव्य  से एक चित्त हो
लक्ष्य सिद्धि में निरत रहो
कोइ कारण नहीं कि
उससे तुम विरत रहो |

किरण














Tuesday, March 13, 2012

उत्साही एकलव्य (भाग-३)

गुरू ने जो जो प्रश्न किये 
पूरा न उन्हें बताला पाए 
गुरू  ने प्रश्न किया दुर्योधन 
तुम्हें दीखता है क्या क्या 
दुर्योधन ने ने कहा सभी कुछ 
देख रहा पर इसमें है क्या 
पेड़ और चिड़िया संग संग 
और सभी कुछ देख रहा 
गुरु बोले बस करो यह लक्ष्य 
बिंध न सकेगा प्रगट रहा 
इसी प्रकार और भी सबने 
गुरु  को उत्तर बतलाया 
और गुरुने उनकी 
असफलता का मान  लगा पाया 
फिर अर्जुन आगे आए 
गुरु बोले अर्जुन बतलाओ 
तुम्हें दीखता है क्या क्या 
कह कर हमको जतलाओ
अर्जुन  बोले गुरु देव कुछ
और नहीं है दिखलाता
चिड़िया का सिर मात्र दीखता
नहीं  समझ में कुछ आता
ठीक लक्ष्य को बेध करो अब
तुम  सच्चे हो धनुर्धारी
सब के  ऊपर विजय प्राप्त
करने की करलो तैयारी
तब  अर्जुन ने चिड़िया के
नयनों  को बींध दिया क्षण में
पा गुरु का आशीष गर्व की
निधि उसने भरली मन में
यह सब कार्य देखता था
इक सूत निषाद का दूर खडा
उसको धनुष चलाने का
मन में उमढ़ा चाव बड़ा
आकार गुरू के पास कहा
गुरु देव मुझे भिक्षा दीजे
अर्जुन  जैसा धनुष  बाण
मै चला सकूँ शिक्षा दीजे
किन्तु कुमारों को उसकी
यह इच्छा रुची नहीं
राज कुमारों के संग अन्त्यज
शिक्षा ले जची नहीं
हो उदास वह सुत निषाद का
लौट आश्रम को आया
असफल आकांक्षा पा कर
अपना चैन गवा आया
(समापन किश्त अगले अंक में )
किरण










Sunday, March 11, 2012

उत्साही एकलव्य (भाग २ )

भीष्म पितामह को आकार के 
उननें यह सब बतलाया
कैसा अद्भुद भेद ज्ञान है उनका 
कह कर जतलाया 
भीष्म  पितामह जान गए 
यह महारथी योद्धा भारी 
उनसे मिलाने को जाने की 
करली सारी तैयारी
कर सम्मान उन्हें घर लाए 
बहुत बहुत सत्कार किया 
बच्चों का शिक्षक बनाने को 
फिर उनसे इसरार किया 
इस प्रकार कौरव पाण्डव के 
गुरु वर द्रोणाचार्य हुए 
अस्त्र शास्त्र की शिक्षा ले कर 
जिनसे वे विद्वान हुए 
नित्य खुले मैदान में 
करते थे अभ्यास सदा 
कल्पित विजय प्राप्त करने को 
करते सदा प्रयास सदा 
अर्जुन बहुत ध्यान से 
इन शास्त्रों की शिक्षा लेते
उसकी लग्न देख गुरु भी 
सदा ध्यान उन पर रखते
एक समय  कठिन परिक्षा
 लेने की गुरु ने ठानी
बाँध पेड़ से पक्षी बोले 
शिष्यों  से ऐसी वाणी 
बहुत दिनों से सीख रहे हो 
आज परिक्षा है इसकी 
जो चिड़िया का नेत्र बीध देगा 
है जीत यहाँ उसकी 
तब कौरव पाण्डव दौनों ही
लक्ष्य भेदन को आए |
(शेष कहानी अगले भाग में )----
किरण




Friday, March 2, 2012

उत्साही एकलव्य (भाग १)

एक बार कौरव पाण्डव सब 
गेंद खेलते मिलजुल 
वहीँ पास में एक कुआ था 
ध्यान नहीं इसका बिलकुल 
गेंद जा गिरी उसमें 
बहुत  वे घबराए
दुर्बल ब्राह्मण देख एक 
दौड़े  वे उन तक आए 
धीरे धीरे उनको 
सारी कथा सुनाई 
कैसे गेंद कुए में पहुची
सब कुछ बात बताई 
सुन कर सारा हाल ब्राह्मण
मन ही मन मुस्काया 
कैसे गेंद बाहर हो सकती 
यह बतलाया 
हंस कर बोले 'बच्चों
क्षत्री हो कर गेंद ना ला सकते 
फिर कैसे तुम निज क्षत्रु को 
जीत हमें दिखला सकते 
देखो तुम्हें बाण विद्या का 
मैं अद्भुद परिचय दूंगा 
बस  सींकों के द्वारा ही 
मैं गेंद तुम्हारी ला दूंगा 
पर पहले तुम सब मिल कर 
मुझको  भोजन ला करवाओ 
मैं दूंगा आशीष तुम्हें 
यश कीर्ति जग में पाओ 
दुर्योधन ने कहा
कृपाचारी को सब बतला दूंगा
आजीवन भोजन छादन की 
सब सुविधा करवा दूंगा
सुन कर सारी बात उनहोंने 
दाल कुए में मुंदरी दी 
और कुए से  बाहर करने 
को सींकों की मुठ्ठी ली 
सींक सींक से बींध गेंद 
बाहर पानी से ले आए
इसी प्रकार अंगूठी को भी
 कूप गर्भ से ले आए |
(शेष  अगले भाग में )----
किरण





Monday, February 6, 2012

अद्भुद साहसी भागीरथ(भाग ४) समापन किश्त

शिव प्रसन्न हो प्रगटे बोले 
राजन  तुम कृत कृत्य हुए 
तुम  जा गंगा को ले आओ 
मैं  उसका भार सम्हालूँगा 
अवतरित  स्वर्ग से  जब होगी
मैं निज केशों में बांधूंगा 
भागीरथ  ने सावधान हो
गंगा का आव्हान किया 
उतरी  स्वर्ग लोक से
शिव के केशों में स्थान लिया 
ध्रीरे  धीरे फिर वह 
भागीरथ राजा के पीछे आई
इसी लिए इस भू पर आकार 
भागीरथी कहलाई 
कपिल मुनी के आश्रम भेजा
सगरों का उद्धार  किया
और जीव जो पड़े मार्ग में 
उनको भी था तार दिया 
इस प्रकार कर पितृ तृप्त  
भागीरथ बडभागी आए 
छाया सुयश तीनों लोकों में  
कुल्तारक वे कहलाए 
हों सहस्त्र सूत किन्तु मूर्ख हों 
तो कुल का उद्धार नहीं 
एक सुकर्मी पुत्र मिला 
माता को होगा भार नहीं 
जैसे एक सूर्य ही 
सारे जग को है प्रकाश देता 
अनगिनत  तारों को भी 
वह  आँखों से ओझिल कर देता 
यदि  त्यागी भागीरत से 
दो  चार पुत्र हों भारत में 
तो  होवे सब पुन्य उदय 
फैले  सुकृत्य इस भारत में 
देव  हमारा देश साहसी 
युवकों  का भण्डार रहे 
भागीरथ  से सभी वीर हों 
देश  धर्म का प्यार रहे |
किरण 




















Wednesday, January 25, 2012

अदभुद साहसी भागीरथ (भाग-३)

दे मंत्री को राज्य भार 
हिमगिरि  पर भागीरथ आए
गंगा को तप से प्रसन्न कर 
दिव्य  रूप दर्शन पाए 
गंगा बोली हे राजा अब -
अपनी  इच्छा प्रकट करो 
क्या  प्रिय  करू तुम्हारा कह दो
अधिक न तप का हट करो
कहा भागीरथ ने 'वरदायनी 
क्या  तुमको कुछ पता नहीं 
पितृ  देव की दुर्गति की अब 
छिपी  किसी से बात नहीं 
कपिल  मुनि  का श्राप 
मुक्ति  पथ में उनके बाधक भारी 
इसी  लिए अब मृत्यु लोक में 
करें  आने की तैयारी 
गंगा  ने यह कहा पुत्र से 
इच्छा  पूरण कर दूंगी 
तब  पितरों को तृप्त करूंगी 
पर  मेरा यह वेग असह्य
केवल शंकर ही सह सकते
वे ही ऐसे शक्तिवान हैं 
जो  निश्छल हो रह सकते
इसी  लिए तुम मुझ से पहले 
शिव  शंकर का ध्यान करो 
बांधें  मुझे जटा में जिससे 
कुछ ऐसा सम्मान करो
भागीरथ गंगा की वाणी सुन 
फिर  ताप में निरत हुए |
(शेष  अंश अगली बार )------
किरण 






















Thursday, January 5, 2012

अद्भुद साहसी भागीरथ (भाग २ )

भाग १ से आगे --
राजन  रानी एक तुम्हारी 
षट् सहस्त्र की माता हो 
वे सब विजई वीर बनेगे
वेड शास्त्र के ज्ञाता हो 
किन्तु किसी अविनय के कारण 
एक साथ सब होंगे नष्ट 
इन के इस वियोग का तुमको 
सहना होगा भीषण कष्ट 
और दूसरी रानी को 
कुल  पालक धीर वीर मतिवान 
नाम चलाने वाली सुन्दर होगी 
एक पुत्र संतान 
यह कह रूद्र हुए अन्तर्हित 
राजा लौट राज्य आए 
अवसर आने पर दौनों रानी ने 
सुन्दर सूत जाए 
बहुत काल बीता पढ़ लिख कर 
पुत्र  सभी विद्वान  हुए 
किन्तु  बड़ी रानी के सब सूत 
क्रूर धूर्त घृतिवान हुए
अश्वमेघ करने का
राजा ने  मन में संकल्प किया
यज्ञ पूत घोड़ा छोड़ा
रक्षक  पुत्रों को संग दिया
चलते चलते सागर के तट
आकार घोड़ा छिपा कहीं
खोज खोज हारे सब
उसका किन्तु चिन्ह भी मिला नहीं
हो उदास लौटे राजा ने
उन्हें बहुत अपशब्द कहे
चले खोजने अश्व
फटी धरती को देख ठिठक रहे
उसे खोदने पर उन सब ने
ऋषि आश्रम पाया सुन्दर
स्वच्छ सरोवर लहराटा  था
वायु बहा रही थी सुखकर |--------(अभी बाकी है )
किरण





अद्भुद साहसी भागीरथ(प्रथम भाग )

त्रेता युग इक्षवाकु वंश
बहुत विख्यात हुआ 
सगर नाम जिनमे थे राजा
यह ग्रंथों से ज्ञात हुआ 
परम प्रातापी,रूप शील ,
गुण अगर ,धीरवृती ज्ञानी 
थे राजा ,दो रानी जिनकी 
पति व्रता सब गुण कहानी 
पुत्र न कोइ था उनके 
राजा इससे चिंतित रहते 
सदा शोक में रहते 
दुःख की ज्वाला सहते 
ऋषि मुनियों ने कहा -
नृपति तुम शंकर जी का ध्यान धरो 
कठिन तपस्या में रत रह कर 
तुम उनका आव्हाहन करो 
आसुतोष थे अवधार दानी 
इच्छा पूरण कर देंगे 
दोनो कल्याणी रानी की 
सूनी  गोदी भर देगी 
राजा रानी सहित गए कैलाश 
महान तप किया वहाँ
हुए प्रसन्न भूत भावन तब 
दर्शन दे कृत कृत्य किया 
हो कर के प्रसन्न भक्ति से 
राजा को वर तुरंत दिया |
किरण