अमृत कलश

Tuesday, July 24, 2012

लेखा जोखा

  एक बीहड़ वन में बहुत पुराना बरगद का एक पेड़ था |उस पेड़ की जताएं उतर कर यहाँ वहाँ पृथ्वी पर धस गईं थीं इन |प्राकृतिक स्तंभों पर पेड़ के पत्तों ने वितान सा तान दिया था |जिसके कारण वहाँ बहुत मनभावन सुहानी हरियाली छाई रहती थी |दूर दूर के बटोही वृक्ष की सघन छाया में घंटे दो घंटे विश्राम करके आगे बढ़ते थे |   एक दिन एक थका हारा बटोही आया
|उस बड़े पेड़ की शीतल छाया में लेटते ही उसे नींद आगई |उस बरगद की जड़ में से एक सर्प निकला और सरसराता हुआ सोते हुए बटोही के पास से निकल गया |उसके मुहं में  कोई पीली सी चीज चमक रही थी शायद किसी धातु का टुकड़ा था |
ज्यूं ही वह बटोही के पास से गुजरा बटोही की आँख खुल गयी |नाग को देख कर उसके प्राण सूख गए |वह बिना हिलेडुले लेता रहा |नाग देवता ने थोड़ी दूर जाकर अपने मुंह में से एक गोल चमकती हुई वस्तु धरती पर छोड़ दी और स्वयं अपनी बांबी में लौट गए |
   बटोही ने उत्सुकता वश जा कर देखा तो वह एक स्वर्ण मुद्रा थी |वह ओने स्थान पर बापिस आया
और एक ऊंची डाल पर बैठ कर ध्यान से देखने लगा |कुछ समय बाद वह नाग फिर से अपने बिल से बाहर आया |उसके मुँह में वैसी ही स्वर्ण मुद्रा और थी |वह उसी स्थान पर आया और मुद्रा डाल कर चला गया |इस प्रकार दो सौ स्वर्ण मुद्राएं उसने अपने बिल के पास एकत्र कर दीं |
बटोही चित्र लिखा सा यह व्यापार देखता रहा |इतने में दिन ढल गया औरअस्ताचलगामीसूर्य रश्मियां सारे वन्य प्रदेश पर छा गईं |उस सुनहरी  आभा से वह स्वर्ण ढेर जगमगा उठा और बटोही की आँखें चौधिया गईं |
जब वह बहुत देर तक फिर बाहर नहीं आया  तो बटोही ने उनसब मुद्राओं को एक रूमाल में बाँध लिया और घर की ओर चल पड़ा |अब उसे यह चिंता सताने लगी कि इतनी बड़ी धनराशि ले कर वह जंगल का रास्ता कैसे तय करे |छोर डाकू उसे लूट लेगे तो वह क्या करेगा |तभी उसे एक पुराने परिचित की याद आई |वह पास ही के गाँव में रहता था |उसी के यहाँ रात बिताने का निश्चय किया |
  गृह स्वामी ने बटोही की बड़ी आवभगत की |भोजन के बाद पलंग बिछा दिया और सब सो गए |रात के अँधेरे में संशयात्मक बटोही की आँखों में नींद न थी वह अपनी पोटली की चिंता में लीन था |उसे व्याकुलता इस बात की थे कि कोई उसकी पोटली चुरा न ले ||वह धीरे से उठा और पास ही पड़ी तेल की हंडिया में वह मोहरों की पोटली डाल दीऔर चैन से सो गया |
     देव योग से अर्ध रात्रि को गृह स्वामीकी पुत्रवधू ने बालक को जन्म दिया |उपचार में तेल की आवश्यकता पड़ी तो तेल की वही हांडी अंदर लजाई गयी |जब तेल उडेला गया तो सामने मोहरों की वह पोटली आपदी और मोहरें बिखर गईं |आश्चर्यचकित ग्रिह्स्वामिनीं ने जाना कि यह बालक बहुत ही भाग्यशाली है |संपदा साथ लाया है |और भगवान को कोतिशय धन्यवाद दिया |फिर पोटली सम्हाल कर घर में रख दीऔर हांडी अपने पूर्व स्थान पर पहुंचा दी | प्रातः झुटपुटे में ही वह बटोही उठा और अपनी माया निकालने के उद्देश्य से हांडी टटोली |वह तो बिलकुल रीती पडी थी |वह किसी को कहता भी तो क्या उसने किसी को कुछ बताया तो था नहीं | वह कुछ सोच कर उसी बरगद के पेड़ के नीचे पहुंचा और धाड़ मार मार कर रोने लगा |वह कहने लगा "हे नाग देवता मैं अभागा था जो आपने दिया उसे सजा कर नहीं रख सका अब कृपा करो फिर से निहाल करदो | यह सुन कर नाग बिल से निकला और एक मुद्रा ला कर बाहर रख दी |थोड़ी देर बाद एक और मुद्रा ला कर वहाँ रख गया |और फिर बाहर नहीं निकला | लोभी बटोही चिरकाल तक वहाँ बैठा रहा ,रोता रहा और निहोरे करता रहा "दया करो नाग देवता दो सौ नहीं तो सौ ही कर दो अब ऐसी भूल कभी नहीं होगी "|किन्तु सब व्यर्थ गया इतने में बांबी में से गंभीर आवाज सुनाई दी "भोला प्राणी तू कितना सुखी था जब तक तूनें ये स्वर्ण मुद्राएं नहीं देखीं थीं किन्तु इन्हें पा कर तेरा चित्त कितना अशांत और विचलित हो गया है |यह संपदा अनर्थ की जड़ है तेरे मित्र के यहाँ जो बालक हुआ है उसका मैं दो सौ मुद्राओं का रिनी था |मैंने तेरे द्वारा उसकी संपत्ति उसके पास भिजवादी |ये मुद्राएं उसी के निमित्त थीं तू तो केवल साधन मात्र था |संसार का लेखा जोखा इसी भाँती पूरा होता रहता है |ये दो मुद्राएं तेरे लिएव हैं |बालक को जा कर उसकी थाथी उसे सूप देने का पारिश्रमिक है |केवल गाधी कमाई का ही पैसा फलता है पड़ा गिरा पाया माल किसी को नहीं फलता |इसी लिए धार लौट जाओ बटोही परिश्रम करके कमाओ और आनंद तथा ईमानदारी से जीवन निर्वाह करो "\ भय से चकित बटोही ने मुद्राएं अपने साफे में बाँध लीन और घर चला गया | ज्ञान वती सक्सेना "किरण "