अमृत कलश

Thursday, April 28, 2022

मुमताज की तलाश

 

बात बहुत पुरानी है, पर आज भी सोचने पर हसी आ ही जाती है...

कॉलेज का वार्षिकोत्सव होने को था।श्री अवस्थी ने एक एकांकी लिखा और उसके मंचन हेतु उपयुक्त पत्रों की खोज प्रारंभ की।सभी महत्त्वपूर्ण और प्रमुख भूमिका करना चाहते थे।लड़कियों में भी चर्चा ज़ोरों पर थी।अलग अलग व्यक्तित्व वाली लड़कियों में मुमताज़ की भूमिका पाने की होड़ लगी हुई थी। सकारण अपना अपना पक्ष रख कर उस किरदार में अपने को खोजने में लगी हुई थीं।

साँवली सलोनी राधिका थी तो थोड़ी मोती, पर शायद अपने को सबसे अधिक भावप्रवण समझती थी। वह बोली, "ये रोल तो मुझे ही मिलना चाहिए। जैसे ही मैं इन संवादों को बोलूंगी, तो सब पर छा जाऊंगी।" चंद्रा उसके बड़बोलेपन को सहन नहीं कर सकी और उसने पलट वार किया, "जानती हो, मुझसे सुन्दर पूरे कॉलेज में कोई नहीं है। मुमताज़ तो सुन्दरता की मिसाल थी। अतः इस पात्र को निभाने के लिए मैं पूर्ण रूप से अधिकारी हूँ।"

शीबा कैसे चुप रह जाती? बोली, "वाह! मैं ही मुमताज़ का किरदार निभा पाऊंगी। जानती हो, मुझसे अच्छी उर्दू तुम में से किसी को नहीं आती। यदि संवाद सही उच्चारणों के साथ न बोले जाएँ तो क्या मज़ा?"

राधिका तीखी आवाज़ मैं बोली, "ज़रा अपनी सूरत तोह देखो! क्या हिरोइन ऐसी काली कलूटी होती हैं?!"

सुनते ही शीबा उबल पड़ी, "तुम क्या हो, पहले अपने को आईने में निहारो। बिल्कुल मुर्रा भैंस नज़र आती हो।"

"अजी, बिना बात की बहस से क्या लाभ होगा? देख लेना, सर तो मुझे ही यह रोल देंगे। मैं सुन्दर भी हूँ और... प्यारी भी।", मोना ने अपना मत जताया।

"बस बस। रहने भी दो। ड्रामे में हकले तक्लों का कोई काम नहीं होता। हाँ, यदि किसी हकले का कोई रोल होता, to शायद तुम धक् भी जातीं।", मानसी हाँथ नचाते हुई बोली।

इसी तरह आपस में हुज्जत होने लगी और शोर कक्ष के बाहर तक सुनाई देने लगा।बाहर घूम रहे लड़के भी कान लगाकर जानने की कोशिश में लग गये की आखिर मांजरा क्या है?

इस व्यर्थ की बहस की परिणीती देखने को मिली सांस्कृतिक प्रोग्राम में।

पर्दा उठा और हास्य प्रहसन "मुमताज़ की तलाश" की शुरुवात हुई।

एक भारी भरकम प्रोफेस्सर मंच पर अवतरित हुए। वह अपने नाटक की रूप रेखा बताने लगे। फिर आयीं भिन्न भिन्न प्रकार की नायिकाएं और अपना अपना पक्ष रखने लगीं मुमताज़ के पात्र के लिए।

फिर पूरा मंच एक अपूर्व अखाड़े में परिवर्तित हो गया और बेचारे प्रोफेस्सर साहब सिर पकड़कर बैठ गये। उनके मुख से निकला, "हाय!!! कहाँ से खोजूं मुमताज़ को?! यहाँ तो कई कई मुमताज़ हैं!"

और पटाक्षेप हो गया।

आशा 

Sunday, April 24, 2022

कहानी सूरज नारायण की

 


16 दिसंबर, 2009

एक कहानी सूरज नारायण की

एक परिवार में रहते तो केवल तीन सदस्य थे ,पर महिलाओं में आपस में बिल्कुल नहीं बनती थी |सरे दिन
आपस में झगडती रहतीथी । घर में सारे दिन की कलह से सूरज नारायण बहुत तंग आ चुका था |न तो घर
में कोईबरकत रह गई थी और न ही कोई रौनक |
यदि कोई अतिथि आता ,सास बहू के व्यबहार से वह भी दुखी होकर जाता | धीरे धीरे घर के वातावरण
से उकता कर वह घर से बाहर अधिक रहने लगा |जब इतने से भी बात नहीं बनी ,एक दिन शान्ति की तलाश
में सूरज ने घर छोड़ दिया |
इधर पहले तो कोई बात न हुई पर जब वह नहीं आया तो सास बहू ने उसकी तलाश शुरू की |सास भानुमती
एक जानकर के पास गयी व अपने पुत्र की बापसी का उपाय पूंछा | बहू ने भी अपने पति को पाने के उपाय
अप्नी सहेलियों से पूछे|
सब लोगों से चर्चा करने पर उन्होंने पाया की यदि घर का अशान्त वातावरण,गंदगी व आपसी तालमेल का
अभाव रहे तो कोई भी वहां नहीं रहना चाहता , चाहे पति ही क्यूँ न हो |
दूसरे ही दिन सास भानुमती ने अपनी बहू सुमेधा को अपने पास बुलाया |लोगों द्वारा दिए गये सुझावों की
जानकारी उसे दी |पति के घर छोड़ देने से परेशान सुमेधा ने भी हथियार दल दिए व सास का कहना मानने लगी |
अब घर में सभी कार्य सुचारू रूप से होने लगे घर की साफ सफाई देखने योग्य थी |यदि कोई आता तो उसे
ससम्मान बैठाया जाता |आदर से जलपान कराया जाता तथा यथोचित भेट ,उपहार आदि देकर विदा किया जाता | धीरे धीरे सभी बाते सूरज तक पहुचने लगी |उसने माँ व सुमेधा की परीक्षा लेने के लिए एक कोढ़ी का वेश
धरण किया और अपने घर जाकर दरवाजा खटखटाया | जैसे ही दरवाजा खुला सुमेधा को अपने सामने पाया |
सुमेधा उसे न पहचान सकी |फिरभी वह व भानुमती उसकी सेवा करने लगी|आदर से एक पाट पर बैठकर
उसके पैर धुलाए , भोजन करवाया व पान दिया | भोजन के बाद सूरज ने सोना चाहा और सूरज नारायण के बिस्तर पर सोने की इच्छा जाहिर की |सास ने खा बुजुर्ग है सोजानेदो |सुमेधा ने उसे सोजाने दिया |
पर सूरज ने एकाएक उसका हाथ पकड़ा व कहा मई सूरज नारायण हूँ |इस पर सुमेधा ने कहा "मेरे
पति तो इस करवे की टोटी में से निकल सकते है ,यदि आप निकल जाओ तभी मई आपको अपना पति मानू"
सूरज ने बड़ी सरलता से करवे की टोंटी से निकल कर दिखा दिया व अपने असली रूप मे आगये |
अब घर का माहोल बदल गया व घर फिरसे खुश हाल होगया |
आशा 

Tuesday, April 19, 2022

विचारों का जलजला

 

 विचारों का जलजला -

मन में विचारों का जलजला जब आता है सही गलत का ध्यान  ही नहीं रहता |उस समय तो ऐसा लगता है कि किसी प्रकारअपने मन की सारी भड़ास निकाल दी जाए जिससे मन हल्का हो पाए |अपने मन की सारी बातें जब किसी से कही जाती हैं यह तक नहीं सोचा जाता कि ये बातें दूसरे के लिए आवश्यक भी है कि नहीं |यूं ही अपना समय और सामने वाले का समय क्यूँ व्यर्थ किया जाए |एक सीमा तक तो अपने विचार दूसरों पर थोपना कहाँ तक न्याय पूर्ण है ?आप के विचार कैसे हैं

क्या आप भी मेरे विचारों से सहमत हैं ?

आशा

 

क्यूँ व्यर्थ किया जाए |एक सीमा तक तो

अपने विचार दूसरों पर थोपना कहाँ तक

न्याय पूर्ण है ?आप के विचार कैसे हैं

क्या आप भी मेरे विचारों से सहमत हैं ?

आशा

 

Saturday, April 16, 2022

लघु कथा ( कांच की स्त्री )

 

कांच की स्त्री –

महिलाओं को प्राचीन काल से ही बहुत नाजुक माना जाता रहा है |उन्हें कौमलांगी और नजाकत की धरोहर समझा जाता था |पर जैसे जैसे समय में परिवर्तम आया उनने सभी क्षेत्रों में अपने हाथों को  अजमाया  और सफल हो कर  दिखलाया | उन्हों ने यह सिद्ध कर दिया कि वे किसीसे कम नहीं | यह जरूर है कि उनमें पुरुषों की तरह शारीतिक शक्ति नहीं पर दिमाग अधिक सक्षम है जिसकी सझायता से वे कठिन से कठिन कार्य भी सरलता से संपन्न कर लेती हैं |वे कांच की तरह सख्त और मजबूत होती  हैं पर भावुक भी|कच्चे कांच की तरह भावुक होने के कारण टूट कर बिखर जाती हैं जब कोई उनके मन को ठेस पहुंचाता है जैसे कि कांच के गिर जाने से टूट कर बिखर जाना और किरच हो जाना |

आशा

Friday, April 15, 2022

काम वाली बाई

 

राधा आज बहुत उदास थी |किसी ने कुछ अनर्गल कह दिया था| कोई हरकत की थी |मेरे कारण पूंछने पर वह फफक कर रोने लगी |उसको मुंह धोने को कहा जब थोड़ी शांत हुई उसने मुझे जो बात बताई मैं सुनकर हैरान रह गई अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ इंसान इतना गिर सकता है कभी कल्पना भी न थी |राधा ने किसी की दी हुई शर्त पहन रखी थी जिसका गला आवश्यकता से अधिक बड़ा था |राह चलते एक व्यक्ति ने अनर्गल ताना दिया और जान बूझ कर

उससे जा टकराया |बोला अरे  वाह क्या मलाई जैसा बदन है काश तुम मेरी होतीं |उसे इस बात की भी शर्म नहीं आई कि राधा दो  बच्चों की माँ थी |राधा को उसकी नीयत में खोट दिखा |वह लगभग दोड़ती हुई हमारे घर में घुस गई और जैसे तैसे उस गंदी नजर वाले से बच  पाई |मुझे इस बात की हैरानी होती है कि जैसा जिसने दिया होता है वही कपड़ा

तन छिपाने के लिए पर्याप्त नहीं होता क्या ?

लोगों की सोच कितनी ओछी होती है |निगा्हें कितनी मैली होती हैं कि हर गलत जगह पर जा कर ही टिक जातीं हैं |

आशा

Saturday, April 9, 2022

उसका भविष्य क्या होगा ?


 


उसने एक लोअर मिडिल क्लास परिवार में जन्म लिया था |साथ लाई थी अपने से छोटे

चार भाई बहिनों को |बचपन से ही सुनती आई थी ,तुम बड़ी हो तुम्हें ही सब का ध्यान रखना होगा |जब दस साल की हुई उसके पिताजी का एक्सीडेंट हो गया तब वे लगभग एक वर्ष बिस्तर पर पड़े रहे |जैसे तैसे माँ ने घर को सम्हाला खेती में काम करके |बाद में उनकी केंसर से मृत्यु हो गई

तेरह वर्ष की होते ही स्नेहा के लिए रिश्ते आने लगे |पर धन के अभाव में यह भी संभव न हो सका |एक व्यक्ति ने सलाह दी

क्यों न दूसरी जात में रिश्ता खोजा जाए |इसमें धन भी नहीं लगेगा और स्नेहा की

शादी भी हो जाएगी | जैसे तैसे एक रिश्ता आया |लड़का उम्र में उससे पन्द्रह साल बड़ा था |पर माँ ने उसे समझाया आदमीं की उम्र नहीं देखी जाती उसका परिवार देखा जाता है

 जब ससुराल में पहुंची उसकी हैसियत एक नौकरानी जैसी हो गई  दिन भर काम करती और बार बार ताने सुनती |कभी हाथ भी उठ जाते वह  रोकर रह जाती |पर सहनशक्ति

जबाब देने लगी |एक दिन आधी रात में घर के बाहर निकाल दिया |वह  कहाँ जाती दो छोटे बच्चों को ले कर |रात तो स्टेशन पर गुजार दी |दूसरे दिन एक गाड़ी में बैठ चल दी बिना टिकिट के |दो स्टेशन के बाद जब

टी .टी. आया उसे उतार दिया अगले स्टेशन पर |इतफाक से एक परिचित मिल गए |वे बापिस ससुराल में छोड़ गए |फिर यही किस्सा दोहराया गया, पर तब बच्चे साथ न थे | वह अपने मायके आ गई | वह दूसरों के घर काम करने लगी |लोगों ने मध्यस्तता की उसे बच्चे मिल गए पर बाद में उसका पति भी आगया पर कोई काम नहीं किया |

पर वह इतने से ही संतुष्ट होगी  |उसमें इतना आत्मविश्वास  देख बहुत अच्छा लगा

“बारह  बरस बाद तो घूरे के दिन भी फिर जाते हैं”कहावत चरितार्थ हुई है |

आशा

Wednesday, April 6, 2022

माँतेरी रूप अनेक


 

 नवरात्री के प्रारंभ से ही उपवास रखने की चाहत थी |इसके पूर्व कभी उपवास रखा ही न था |सुबह से घर झाड़ा पौंछा खुद स्नान किया |पूजन की तैयारी की |

पहले सोचा वृत तो निर्जला ही रखना चाहिए |

 पर सर दुखने लगा| मन ने कहा चाय  तो पीलूँ इसमें क्या हर्ज है |चाय का प्याला सब के हाथों में देख मन न माना और चाय पीली |

फिर पूजा की चित्त लगा कर |दुर्गा चालीसा का पाठ किया और आरती की |यह सब करते करते

ग्यारह बज गया|खाना बनाया सब को खिलाया |फिर फलाहार बनाया और पेट भर खाया |फल फूल तो दिन भर चलते रहे रात्रि को आरती की पर मन में कहीं कुंठा रही |बहुत सोचा फिर याद आया मैंने अपने से किये वादे को नहीं निभाया खुद पर आत्म नियंत्रण न रख पाया |अब सोचा नियमित दर्शन को जाऊंगा |पर घर में आए मेहमान यह भी नहीं हो पाया | माता तुम्हारा एक रूप ही देखा शेष के लिए आने वाले नवदुर्गे तक जाने का वादा किया खुद से |अब दुखी हूँ अपने मन को स्थिर न रख पाने के लिए |

   मालूम तो है कि तुम्हारे रूप अनेक पर देख  नहीं पाया |

आशा