अमृत कलश

Tuesday, June 26, 2012

किसकी भूल

बात बहुत पुरानी भी नहीं है और नई भी नहीं |जानी पहचानी और नित्य के व्यवहार की है
आदिकाल से चली आ रही अंत काल तक जाएगी |
न उसका विश्राम स्थल है ना ही अंत |विज्ञान के धुलनशील और ज्वलनशील तत्वों के सामान मनुष्य भी एक "भुलनशील "प्राणी है | विधाता का निर्माण तो सर्वश्रेष्ठ  है पर उसमें कुछ तो कमीं होनी ही चाहिये |
किन्तु जब वह चतुर विधाता भूल कर जाता है तो वह उसका खेल मात्र ही माना जाता है |
                    "समरथ को नहीं दोष गुसाईँ "
इन भावनाओं के साथ २ नानी दादी के मुँह से सूनी एक कहानी याद आ गई आज भी वह कहानी एक प्रश्न के रूप में अन्मुख आ अंतर में छा जाती है |
     क्या कृपालू पाठक उस प्रश्न को हल करने का यत्न करेंगे  ?
युग  युगान्तर की बात है एक समय एक निर्जन विपिन में किन्हीं महात्मा की कुटी थी |पास ही कल कल करती कालिंदी इठलाती बल खाती अवाध गति से बहती चली जा रही थी |आसपास आम करील जामुन के छोटे बड़े वृक्ष थे ,कादम्बरी जिनके ऊपर सदा ही अमृत वर्षा करती रहती थी |
      प्रातःऊषा काल में पक्षियों के मधुर कलरव के  स्वर में स्वर मिला कर योगी राज अपने आराध्य के चिंतन में लीन रहते |दोपहर में कुछवन्य फल फूल चुन कर अपने प्रभु को प्रेम से भोजन अर्पित करते और स्वयं उनका प्रसाद पाकर उत्फुल्ल मन से ग्रंथों के  अध्यन में. लीन हो जाते \
सांयकाल  को योगी राज दिन भर की दिनचर्या पर मनन करते हुए दूर तक घूमने के लिए निकल जाते |
वे  राधा रानी के पथ  के अनुयाई और भगवान मुरली मनोहर श्याम सुन्दर के अनन्य भक्त थे |भगवान की सावली सलौनी सहृदय सुन्दर और स्नेहिल मूर्ती की प्रत्यक्ष झांकी देखने को उनका हृदय व्याकुल रहता मन मोहन की मुरली की मधुर ध्वनि सुनने के लिए उनके कान उत्सुक रहते |अपने हृदय की व्यथा सुनाने के लिए उनकी आत्मा तड़पती रहती |दुर्भाग्य कहो या अनाड़ीपनयोगी के पास कोई ऐसा साधन न था जो अपने प्रियतम से साक्षात्कार करने  के लिए प्रयुक्त करते |
         भाग्यवश एक दिन दया माय प्रभु की अनुकाम्पा भ्रमण करते समय उन्हें दो विशाल मंदिर दृष्टिगोचर हुए |निर्जन विपिन में हटात् दो मंदिर देख कुछ चकित और उत्सुक हृदय से योगी राज वहाँ पहुँचे |हर्ष से उछलते हृदय को कठिनाईए से थाम कर उन्होंने दौनो मंदिरों का सूक्ष्म निरीक्षण \किकलाकार की कला पर योगी राज मोहित हो  गए | ग्रंथों में वर्णित वही सावली सलौनी सामान वस्त्राभूषणों से सुसज्जित दो प्रतिमाएं मंदिर में देख कर वे आनंद विभोर हो उठे इनमें वह पहिचान ही नहीं पाए कि |उनके नटनागर आनंद कंदश्री भगवान कृष्ण की कौनसी प्रतिमा है ?
    उदगार हृदय में ज्वार भाटे के सामान उमढे़ पड़ रहे थे कि कर्तव्य विमूढ़ से वे एक मंदिर में अनायास ही पहुँच गए |सामने मन लुभावनी सावरी प्रतिमा को देख कर वे अपना माँ भुला बैठे और लगे चरण पकड़ कर  अपनी व्यथा कथा दिखाने |
         नयनांजलि पुनीत चरणों का प्रक्षालन कर रही थी |हृदय व्यथा से व्याकुल था और वाणी अपने कर्तव्य में दृढता से संलग्न हो कर अपना कार्य कर रही थी |योगी ने जन्म जन्मांतर की पूंजी उन् पावन चरणों पर लुटा दी जितने उपालंभ देने थे दिए |चोर लुटेरा छलिया निर्दई निष्ठुर बताया |रोया मनाया और अंत में चरण पकड़ कर उनमें ही लीन हो गए  |किन्तु नाटो वह प्रतिमा उनके  कान्हा की थी  ना उनकी उस व्यथा कथा का कुछ फल ही निकला |
   वह प्रतिमा तो थी मर्यादा पुरुषोत्तम  राम की जहाँ हर काम कायदे क़ानून के अंदर  होता था | वे तो उसकी मूर्खता पर मंद मंद  मुस्कुरा रहे थे |
   किसकी भूल थी यह ,शिल्पी की ,योगी की या ग्रंथकार की क्या कोई बता पाएगा |

ज्ञान वती सक्सेना 'किरण'



3 comments:

  1. मेरे विचार से तो यह भूल योगीराज की ही थी ! भगवान की आराधना करनी है तो उनके आदि रूप की करनी चाहिए ना ! अब वे कृष्ण की आराधना करना चाहते हैं और राम की मूर्ती के पाँव पकडेंगे तब तो पूजा व्यर्थ ही जायेगी ! राह चलते हुए किसी शर्मा जी का नाम लेकर किसी वर्मा जी को बुलायेंगे तो वर्मा जी भला क्यों जवाब देंगे क्योंकि वे तो शर्मा जी हैं ही नहीं ! रोचक कथा ! मम्मी की हर रचना अद्भुत होती है ! आनंद आ गया !

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  2. ऐसा प्रतीत होता है कि इस व्यक्ति के लिए योग पीटी जैसा ही कुछ रहा होगा। जो योगी होगा,वह राम और कृष्ण में फर्क न करेगा। धन्य थे राम भी,जिन्हें खुद में लीन हो गए व्यक्ति में भी मूर्खता ही नज़र आई।

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  3. धन्यवाद टिप्पणी के लिए

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