Amrit kalash

अमृत कलश

अमृत कलश

Monday, February 29, 2016

परस्पर सम्बन्ध




उसने आज तक यही गलत फहमी पाली थी कि जो कुछ उसने सहा था उस तरह का व्यवहार वह अपने बच्चों के साथ नहीं करेगी |इसी गलत धारना में जी रही थी की किसी भी बुराई से बहुत दूर रही |कोई यश मिले ना मिले पर अंतरात्मा तो साफ है बेदाग़ है |
पर बार बार विचारों में असंतुलन हुआ मन को एक बात कचोटने लगी अपने और पराए में बहुत भेद होता है स्पष्ट हो गया | लोग अपनी समस्याओं में इतने उलझे होते हैं की उन्हें दूसरों की चिंता नहीं होती |जो वे सोचते हैं वही ठीक है बाक़ी सब व्यर्थ है |उनकी समस्याएँ तो समस्या हैं दूसरों की गौण हैं |
मन ने कहा अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है सम्हल जाओ |तेल देखो तेल की धार देखों फिर व्यवहार
निर्धारित करो |लगने लगा है अपने और पराए में अंतर होता है |सारी दुनिया मतलब की है |बिना अहसान जताए कुछ भी हासिल नहीं होता |उसका मन फटने लगा और वह सोचती रही किउसके अच्छे वर्ताव का जो सिला उसे मिला ईश्वर किसी दुश्मन को भी न दे |लोगों के बहुत बड़े बड़े अरमान होते हैं अपने बच्चों से पर जब वे किसी के सुर में सुर मिलाकर राग अलापते है हो मन से बद्दुआ ही निकलती है दुआ नहींयह तो आगे का वक्त ही बताएगा की जो व्यवहार खुद ने किया है यदि खुद के साथ होगा तब कैसा लगेगा |
आशा





Posted by Asha Lata Saxena at 10:47 PM 1 comment:
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सुरभि

Akanksha

18 फ़रवरी, 2016

सुरभि

एक दिन घूमते समय रास्ते में सुरभि मिल गई थक गए थे सोचा क्यूँ न पुलिया पर बैठें और पुरानी बातों का आनन्द लें |गपशप में कहाँ समय निकल गया पता ही नहीं चला |अब यह आदत सी हो गई रोज घर से और पुलिया पर बैठ बातें करते |
    एक दिन वह बहुत उदास थी | जब कारण पूंछा अचानक रोने लगी जब शांत हुई तो उसने बताया "एक समय था जब उसके श्रीमान जी मिल में इंजीनियर थे बड़े ठाट थे |मिल बंद होते ही बेरोजगारी के आलम में कुछ दिन तो ठीक ठाक गुजरे पर गिरह की पूंजी कब तक चलती सोचा अपने बड़े बेटे के पास जा कर रहें "
दोचार दिन तो बहुत खातिर हुई पर धीरे धीरे काम को लेकर अशांति होने लगी कल यही हुआ जब सुबह पेपर पढ़ रहे थे "विनीता कह रही थी आखिर बाबूजी को काम ही क्या है क्या वे बच्चों को स्कूल तक लेजा ला नहीं सकते इतना तो कर ही सकते हैं दिन भर पड़े रहते हैं और मुफ्त में रोटियाँ तोड़ते हैं "|
   बेटा बोला धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा अभी से अशांति क्यूं ?कोई सुनेगा तो क्या कहेगा |
         सुरभि बता रही थी "मैं तो प्रारम्भ से ही काम करती रहती थी पर इंजीनियर साहव ने तो कभी एक ग्लास भर कर भी न पिया था "उसका  रोने का कारण था शान से बिताया गया बीता हुआ कल यदि पहले से ही आगे की सोचते तोआज यह स्थिति नहीं आती पर नियति के आगे कुछ भी नहीं हो सकता

तभी तो कहा जाता है जो आगे की सोच कर चलता है और कठोर धरती को नहीं छोड़ता है वही सरल जीवन जी पाता है |
 सदा भविष्य को ध्यान में रख कर आने वाले कल के लिए प्लानिग करना चाहिए और बचत करने की आदत डालना चाहिए |
      मुझे आज भी उस घटना का स्मरण होआता है और मेरे आगे आ जाती है सुरभि की सूरत जिसे भुला नहीं पाती |
Posted by Asha Lata Saxena at 4:55 AM 1 comment:
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बातें दो बच्चों की

बातें दो बच्चों की



एक दिन की बात है दो बच्चे बंद धर के दरवाजे पर बैठे थे |अनुज बहुत खुश था क्यूं की उसका जन्म दिन था वह सोच रहा था कब मां आये और उसके लिए जन्म दिन का तोफा लाए |
   उसने अपने मित्र रवि से पूँछा”तू मेरी साल गिरह पर आएगा ना  आज शाम को “रवि ने कहा यार मैं तो आ जाता पर मेरे पास गिफ्ट तो है ही नहीं तुझे क्या दूंगा |वैसे भी महीने का अंत  होने को है |मेरी मम्मी 



  के पास पैसे भी तो न होंगे “खाली हाथ आना तो ठीक न लगेगा “|
अनुज ने सलाह दी “ अरे गिफ्ट की  क्या बात करता है वह मेरे  पास जो डायरी है उसी को कागज़ में लपेट कर दे देना पर उसमें तो कुछ लिखा भी है “रवि उदास स्वर में बोला | अरे उन पन्नों को फाड़ देना ||गिफ्ट तो
      “ अरे उन पन्नों को फाड़ देना और दे देना “  गिफ्ट ही होता है तू आना  जरूर “|वे दौनों इतनी गंभीरता से कर रहे थे कि उनकी बातों को मैं आज तक ना भुला पाई |
Posted by Asha Lata Saxena at 4:49 AM No comments:
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Saturday, February 27, 2016

कमरा नंबर २०४

  न जाने क्यूँ मन बहुत खिन्न था |बड़े अजीब अजीब सपने आ रहे थे | कभी अपने को भीड़ से घिरा पाती तो कभी ऐसा प्रतीत होता मानो कोइ बहुत बड़ा जश्न मनाया जा रहा है और मुझे बहुत से तोहफे मिल रहे हैं |
कुछ दिन बाद मुझे एक यात्रा पर भी जाना था पर उत्साह नाम मात्र को न था बहुत बेमन से अपना सामान ज़माना प्रारम्भ किया |सामान जमाते जमाते लगबग ११ बज गए |
थकान भी अपना सर उठा रही थी |सोचा पहले नहा कर पूजा करलूं |फिर फलाहार की व्यवस्था करू थके कदमों से स्नानागार की  ओर चल दी |
नहाने के बाद कुछ अच्छा लगा पर पैर साफ न हुआ था |सोचा क्यूं न पैर भी रगड़ लूं |
न जाने कैसे पैर फिसला और गिर गई |
काफी समय बीत गया और उठना संभव न हो पाया |आवाज ने भी मेरा साथ छोड़ दिया बहुत मुश्किल से दरवाजा खटखटाया और बाहर निकालने को कह पाया |एक व्यक्ति से तो उठाया जाना संभव न था |पास के लोगों को एकत्र कर जैसे तैसे निकाला जा सका |
फ्रेक्चर के कारण पैर उठ ही नहीं रहा था |पोर्टेबल एक्सरे से पता चला की ३४ हड्डी टूटी थीं |बिना ऑपरेशन के जुड़ने की कोई संभावना न थी |
हॉस्पिटल में तावड़तोड़ भरती किया गया |ईश्वर की कृपा थी कि जनरल रिपोर्ट ठीकठाक निकली दाईबिटीज के सिवाय |दूसरे दिन ऑपरेशन के लिए जब जाने लगे सोचा जल्दी ही हो जाएगा |

पर भगवान जो सोचते हैं उसका उलटा ही करता है |हद्दी इतनी कमजोर थीं की ऑपरेशन में ही ५ घंटे लग गए |
अब बारी थी रूम में शिफ्ट करने की |रूम तो डीसेंट था पर नंबर था २०४ |शाम होते होते मिलाने वालों का तांता लगा गया |वेदना सम्वेदना में खोने लगी |लगभग ८ बजा होगा अचानक एक महानुभाव का आगमन हुआ |
पहले ही शब्द थे अरे वही कमरा वही बिस्तर |आपको देख कर मुझे मेरी माँ की याद आ गई आज तक वे बिस्तर नहीं छोड़ पाई हैं अपने अंतिम पलों की प्रतीक्षा कर रही हैं |यह कैसा इत्फाक है |अनजाने में मुझे बहुत जोर का झटका लगा |सोचा क्या मेरी भी यही नियती होगी |पर भगवान को शायद कुछ और ही मंजूर था |
मुझे १० वे दिन घर आने की अनुमति मिल गई और सकुशल घर आ गई |पर दो दिन बाद फिर भरती होना पड़ाऔर १० दिन फिर वहां की हवा खानी  पडी |पर ईश्वर की कृपा से इसबार कमरा नंबर बदल गया था और मन में उपगी शंका से भी छुटकारा मिल गया था |अब कमरा नंबर २०४ मेरा पीछा नहीं कर रहा था |
आशा



Posted by Asha Lata Saxena at 6:09 PM No comments:
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श्रीमती ज्ञानवती सक्सेना 'किरण'

श्रीमती ज्ञानवती सक्सेना 'किरण'
हमारी माँ डॉ. श्रीमती ज्ञानवती सक्सेना ' किरण' साहित्यलंकार, साहित्यरत्न, एम.ए., एल.एल.बी.! एक अत्यंत विदुषी, संवेदनशील तथा सामाजिक सरोकारों के प्रति पूर्णत: समर्पित एवं सजग रचनाकार जिन्होंने साहित्य की हर विधा पर सफलतापूर्वक अपनी कलम चलाई !

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