ओस की नन्हीं बूँदें
हरी दूब पर मचल रहीं
धूप से उन्हें बचालो
कह कर पैर पटक रहीं |
देखती नभ की ओर हो भयाक्रांत
फिर बहादुरी का दिखावा कर
कहतीं उन्हें भय नहीं किसी का
रश्मियाँ उनका क्या कर लेंगी |
दूसरे ही क्षण वाष्प बन
अंतर्ध्यान होती दिखाई देतीं
वे छिप जातीं दुर्वा की गोद में
मुंह चिढाती देखो हम बच गए |
पर यह क्षणिक प्रसन्नता
अधिक समय टिक नहीं पाती
आदित्य की रश्मियों के वार से
उन्हें बचा नहीं पाती |
आशा
No comments:
Post a Comment