अमृत कलश

Tuesday, October 4, 2011

गुरु भक्त उत्तंग

द्वापर युग में तमसा के तट, था आश्रम सुख कारी
आयोधोम्य नामक ऋषि थे, जिसके कुलपति अधिकारी |
उस में दूर दूर के बालक, शिक्षा पाने आते
ब्रह्मचर्य का समय पूर्ण कर, जग में नाम कमाते |
उस आश्रम में वेद और, आरुणि उपमन्यु रहते
गुरु के संग समान भाव से, सुख दुःख मिल जुल सहते |
तीनों ऋषि को बहुत मानते, आज्ञा पर मरते थे
गुरु या गुरु पत्नी जो कहते, झट उसको करते थे |
वेद बहुत भोला भाला था, और परिश्रम धारी
गुरु आज्ञा से कभी न टलता, था सेवक सुखकारी |
हुए प्रसन्न धौम्य ऋषि उससे, कहा समय अब आया
ब्रह्मचर्य है पूर्ण तुम्हारा, तुमने सब भर पाया |
है आशीष हमारा तुमको, तुम सर्वज्ञ रहोगे
शिष्य रहेंगे आज्ञाकारी, सुख समृद्धि लहोगे |
पा आशीष वेद ने तब, गृह आश्रम में पग धारा
प्रभु चिंतन में लीन सदा रह, सद् उपदेश प्रचारा |
इन्हीं वेद के शिष्य तीन, गुरु आज्ञाकारी सुख कर
थे उनमें उत्तंग सर्व गुण खानी, ज्ञानी सुन्दर |
कर पच्चीस वर्ष पूरण, जब आश्रम छोड़ सिधारे
गुरु ने आशीष दिया, धर्म धन मान लहो सुख धारे |
तब उत्तंग सकुच कर बोले, गुरु दीक्षा क्या लाऊँ
जो आज्ञा हो वही देव मैं, भेंट तुम्हें कर जाऊँ |
गुरु ने कहा मुझे ना कुछ दो, कष्ट न व्यर्थ करो तुम
यदि इच्छा है गुरु माता से, इस पर बात करो तुम |
गुरु माता ने कहा गर्व है, मुझको तुम पर भारी
पोष्य राज्य में जाना होगा, कर लो तुम तैयारी |
उनकी रानी के कुण्डल तुम, माँग यहाँ ले आओ
वही भेंट में दे कर मुझको, सुन्दर आशिष पाओ |
उन्हें पहन कर करना मुझको, ब्रह्मभोज इक भारी
तुम कुण्डल लेने जाओ, मैं करती हूँ तैयारी |
ऐसा करने से मेरी भी, पूरण इच्छा होगी
और तुम्हारे ह्रदय वासिनी, वह वरदायनी होगी |
जो आज्ञा कह चले शिष्य, मारग में आक़र देखा
एक बैल पर महापुरुष, कुछ कहते उनको देखा |
वे बोले उत्तंग न मन में, कुछ भी शंका लाओ
कुछ गोबर ले कर इस पशु का, तुम जल्दी खा जाओ |
यह भविष्य में होगा तुमको, सुखदायी हितकारी
आयोधौम्य भी इस को खा कर, बने महा ऋषि भारी
प्रभु की आज्ञा समझ शिष्य ने, झटपट उसको खाया
बिना आचमन किये तुरंत, फिर राजमहल को आया |
अर्ध्य पाद्य से पूजन कर, राजा ने उसे सन्माना
दर्शन पाकर हो कृतार्थ, निज भाग्य बड़ा कर माना |
अवसर पाकर तब ऋषिवर ने, निज आशय समझाया
कुण्डल लेने गुरु आज्ञा से, यहाँ आज मै आया |
राजा बोले धन्य भाग्य प्रभु, इच्छा पूरण होगी
रानी से जा कहा सुनो, तुम अब बड़ भागी होगी |
देव ऋषि के महा शिष्य, याचक बन कर आये हैं
उन्हें चाहिए कुण्डल, यह संदेशा वे लाये हैं |
रानी बोली "अहोभाग्य, मैं काम किसी के आई
नाथ उन्हें भीतर पहुँचा दो, मैं कुण्डल ले आई |"
राजा जा कर ऋषि को, आदर से भीतर ले आये
पर उनका मुँह जूठा था, रानी न देख वे पाये |
बोले राजन कहाँ तुम्हारी रानी, ना मैंने पाई
"देव आचमन कर लें पहले, तब वह पड़े दिखाई |"
वह पतिप्राणा महा सती है, देख ना पाओ ऐसे
है यह अपनी धर्म नीति, अपमान नहीं कुछ वैसे |
विधि विधान से हाथ पाँव धो, किया आचमन सुख से
तब रानी को देखा उनने, बोले आशिष मुख से |
फिर कुण्डल माँगे, गुरु पत्नी की इच्छा बतला कर
हो प्रसन्न रानी यूँ बोली, कुण्डल हाथ उठा कर
"हे ब्राह्मण लो, सावधान हो करके मग में जाना
तक्षक इन्हें चाहता है, उसके ना चक्र में आना "
आशीष दे उत्तंग चले, गाते गुण प्रभु के प्यारे
पीछे आता था तक्षक, क्षपणक का बाना धारे |
एक नदी के तीर ब्रह्मचारी, कुण्डल को रख कर
उतरे जल में क्षपणक भागा तब तक उनको लेकर |
बाहर आ मुनि सुत ने देखा, कुण्डल वहाँ नहीं थे
तक्षक उनको ले भागा, रानी के शब्द सही थे |
क्रोधित हो कर इंद्र वज्र तब, उस पर ऋषि ने मारा
जिसने नाग लोक तक सारा, उसके पीछे छाना |
हार मान कर भय से व्याकुल, हो कर तक्षक आया
कुण्डल को लौटाल, प्रेम से आशिष पा घर आया|
तब आए उत्तंग गुरु के , आश्रम में हुलासाये
कुण्डल गुरु चरणों में रख कर, खड़े हुए सकुचाये |
गुरु बोले 'हे सुत यह, अपनी माता को दे आओ
तुमने उनकी आन निभाई, जा कर आशिष पाओ |
गुरुपत्नी ने कहा हर्ष से, "सब सुख हे सुत पाओ
सरस्वती लक्ष्मी के वर सुत हो कर नाम कमाओ |
पा आशीष हर्ष से तब वह, गृह आश्रम में आये
गुरु कृपा से सब सुख पाये जीवन धन्य बनाये |

किरण










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6 comments:

  1. वाह बहुत सुन्दर प्रसंग सुनाया।

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  2. बहुत आभार वन्दना जी इस रचना पर कमेन्ट के लिए |
    आशा

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  3. गुरु भक्ति की अद्वितीय मिसाल है यह कविता ! वाकई मम्मी का ज्ञान और पौराणिक कथाओं के प्रति उनका अनुराग अचंभित कर देता है आज भी ! काव्य कथा के रूप में इतनी बड़ी बड़ी रचनाएं लिखना उन्हीं के बस में था ! अद्भुत कथा है यह ! अति सुन्दर !

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  4. धन्यवाद आपका |
    आशा

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  5. ऋषि उत्तंग की काव्यात्मक कथा बहुत अच्छी लगी।

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  6. आपका कमेन्ट पढ़ कर बहुत अच्छा लगा |
    ब्लॉग पर आने के लिए आभार |
    आशा

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