बहुत पुराणी कथा एक
जब अमृत मथा गया था
उच्चेश्रवा नाम का घोड़ा
उससे प्रकट हुआ था |
कद्रू विनता नाम सहोदर
बहिने वहाँ खड़ी थीं
कौन रंग है इस घोड़े का
इस पर पड़ी अड़ी थीं |
विनती बोली बहिन अश्व वह
श्वेत रंग का भारी
कद्रू बोली सच है
लेकिन दुम काली है सारी |
शर्त लगाई दौनों ने
जो भी जीतेगी बाजी
मालिक होगी ,और दूसरी
दासी राजी राजी |
कद्रू के सहस्त्र सुत थे
जो नाग कहे जाते थे
थे सब को दुःखदाई
उनसे सुर न जीत पाते थे |
अपनी जीत जताने को वह
निज पुत्रों से बोली
जा चिपटो घोड़े की दुम से
हो काली वह धोली |
किसी भांति बीती रजनी
आया प्रभात सुख कारी
तब दौनों ने घोड़े तक
जाने की की तैयारी |
दौनों वे आकाश मार्ग से
फिर घोड़े तक आईं
चन्द्र प्रभा सा श्वेत अश्व
पर दुम थी काली पाई |
कद्रू हुई प्रसन्न बहुत
विनता उदास मुरझाई
दासी बनी बहिन की वह
दुःख से मन में घबराई |
ये दौनों थीं दक्ष सुता
कश्यप मुनि की गृहरानी
दौनों धर्म प्राण थीं सुन्दर
तेजस्वी गुण खानीं |
हो प्रसन्न कश्यप मुनि इक दिन
बोले लो वर सुन्दर
कद्रू के होवें हजार सुत
विनता के दो सुख कर |
अवसर आया जब कद्रू ने
शुभ सहस्त्र सूत जाए
तब विनता ने दो ही अंडे
विधि विधान से पाए |
किन्तु देव गति ने उसकी
मति पर था पर्दा डाला
समय पूर्ण होने से पहले
एक भग्न कर डाला |
तब अपूर्ण तेजस्वी बालक
उससे बाहर आया
कैसा पाप किया माता ने
यह उसने बतलाया |
वह बोला माँ हाय किया
तूने अनर्थ भारी
इससे भगनी की दासी
बनने की कर तैयारी |
जब होंगे शत पांच वर्ष
तब दूजा सूत आवेगा
वह तेजस्वी तुम्हें श्राप से
मुक्त करा पाएगा |
यह कह कर वह रवि सूत बना
रख अरुण नाम जग भाया
सूर्य देव की सेवा कर
निज जीवन धन्य बनाया |
इसी श्राप से विनता कद्रू की
दासी थी मानी
दूजे सूत की नित्य प्रतीक्षा
करती थी अभिमानी |
अंत हुआ विनता के दुःख का
वह शुभ अवसर आया
महा तेजधारी सूत उसने
तब अंडे से पाया |
किरण
(क्रमशः) भाग दो का इंतज़ार करें |
डा.ज्ञानवती सक्सेना की पुस्तक अमृत कलश के सौजन्य से |
जब अमृत मथा गया था
उच्चेश्रवा नाम का घोड़ा
उससे प्रकट हुआ था |
कद्रू विनता नाम सहोदर
बहिने वहाँ खड़ी थीं
कौन रंग है इस घोड़े का
इस पर पड़ी अड़ी थीं |
विनती बोली बहिन अश्व वह
श्वेत रंग का भारी
कद्रू बोली सच है
लेकिन दुम काली है सारी |
शर्त लगाई दौनों ने
जो भी जीतेगी बाजी
मालिक होगी ,और दूसरी
दासी राजी राजी |
कद्रू के सहस्त्र सुत थे
जो नाग कहे जाते थे
थे सब को दुःखदाई
उनसे सुर न जीत पाते थे |
अपनी जीत जताने को वह
निज पुत्रों से बोली
जा चिपटो घोड़े की दुम से
हो काली वह धोली |
किसी भांति बीती रजनी
आया प्रभात सुख कारी
तब दौनों ने घोड़े तक
जाने की की तैयारी |
दौनों वे आकाश मार्ग से
फिर घोड़े तक आईं
चन्द्र प्रभा सा श्वेत अश्व
पर दुम थी काली पाई |
कद्रू हुई प्रसन्न बहुत
विनता उदास मुरझाई
दासी बनी बहिन की वह
दुःख से मन में घबराई |
ये दौनों थीं दक्ष सुता
कश्यप मुनि की गृहरानी
दौनों धर्म प्राण थीं सुन्दर
तेजस्वी गुण खानीं |
हो प्रसन्न कश्यप मुनि इक दिन
बोले लो वर सुन्दर
कद्रू के होवें हजार सुत
विनता के दो सुख कर |
अवसर आया जब कद्रू ने
शुभ सहस्त्र सूत जाए
तब विनता ने दो ही अंडे
विधि विधान से पाए |
किन्तु देव गति ने उसकी
मति पर था पर्दा डाला
समय पूर्ण होने से पहले
एक भग्न कर डाला |
तब अपूर्ण तेजस्वी बालक
उससे बाहर आया
कैसा पाप किया माता ने
यह उसने बतलाया |
वह बोला माँ हाय किया
तूने अनर्थ भारी
इससे भगनी की दासी
बनने की कर तैयारी |
जब होंगे शत पांच वर्ष
तब दूजा सूत आवेगा
वह तेजस्वी तुम्हें श्राप से
मुक्त करा पाएगा |
यह कह कर वह रवि सूत बना
रख अरुण नाम जग भाया
सूर्य देव की सेवा कर
निज जीवन धन्य बनाया |
इसी श्राप से विनता कद्रू की
दासी थी मानी
दूजे सूत की नित्य प्रतीक्षा
करती थी अभिमानी |
अंत हुआ विनता के दुःख का
वह शुभ अवसर आया
महा तेजधारी सूत उसने
तब अंडे से पाया |
किरण
(क्रमशः) भाग दो का इंतज़ार करें |
डा.ज्ञानवती सक्सेना की पुस्तक अमृत कलश के सौजन्य से |
आदरणीया किरण जी को सादर प्रणाम|
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना|दूसरे भाग के इंतजार में...
बहुत सुन्दर्…………दूसरे भाग का इंतज़ार है।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteमम्मी की हर रचना अद्भुत, प्रेरक और अद्वितीय होती है ! बहुत प्यारी कथा है यह भी !
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