अमृत कलश

Sunday, October 30, 2011

मातृ भक्त गरुड़ (भाग -२ )


पिछले भाग -१ से आगे -------

एक दिवस निज सुत संग विनता
सुख से बातें करती
बैठी थी प्राचीन कथा कह
सूत का थी मन भरती |
कद्रू आई कहा मुझे
वारिध के भीतर जाना
नागों का है तीर्थ वहाँ पर
देख मुझे है आना |
विनता निज कंधे कद्रू
सुत पर नागों को रख कर
चली बोझ ले कहा गरुड़ ने
माता से यों दुःख कर |
मा क्यों हमको नागों की
आज्ञा पर ही चलना है
मा बोली मैं दासी हूँ
यह इन सब की छलना है |
अब तुम ही मेरी इस विपता को
बेटा हर सकते
मेरे उर में लगे हुए
घावों को तुम भर सकते |
हों कर चकित गरुड़ ने पूंछा
यह सब कैसी माया
तुमको मौसी की दासी ही
बनना क्यों कर भाया |
बिनता ने अपनी बाजी व
कद्रू का छल बताया
जिसके कारण दासी पद
पाने का अवसर आया |
हों कर दुखी गरुड़ सर्पों से
बोल "हें बडभागी
क्या प्रिय करूँ तुम्हारा
जिससे छूटे माँ अभागी "
नागों ने तब कहा "पक्षी वर
हमको अमृत लादो
हम माता को मुक्त करेंगे
अपना तेज बतादो "
उनकी बात माँ बिनता सुत
अमृत लेने धाए |
भूख मिटाने एक द्वीप के
थे निषाद सब खाए
किन्तु भूल से एक ब्रह्मण
उनके मुख मैं आया
जिससे तालू लगा चटकने
ओर महा दुःख पाया|
फिर कश्यप मुनि की आज्ञा से
हाथी कछुआ ले कर
सुबरण गिरी के स्वर्ण शिखर पर
पहुंचे रास्ता तय कर |
उनको खा कर धीरे धीरे
स्वर्ग लोक में आए
उनके आने का आशय लख
देव इन्द्र धबराए |
हुआ भयंकर युद्ध देव गण से
थे खग वर जीते
स्वर्ण शरीर धरा
अमृत घर तक पहुंचे मन चीते |
देखा चक्र भयंकर उसकी
रक्षा में तत्पर है
चारों ओर अस्त्र चिपके हैं
रुकता न पल भर है |
सूक्ष्म रूप कर धारण उसमे
हो कर भीतर आये
दो भीषण तम सर्प सदा
रक्षा में तत्पर पाए |
करके द्वन्द युद्ध सर्पों से
उनका नाश किया फिर
ले अमृत घर चले
प्रभु से ये वर पाए सुन्दर |
प्रभु ने कहा रहोगे मेरे ध्वज में
ओ पक्षी वर
और अमर हो करमेरे
होवोगे वाहन सुखकर |
प्रभु से सुखदाई वर पाकर
आगे को ज्यों धाए
चेतन हीन देवताओं ने
उठ कर के इंद्र जगाए |
हो सचेत इंद्र ने अपना
फिर से बज्र चलाया
एक पंख से हीन बन कर
लौट बज फिर आया |
इससे नाम सुपर्ण हुआ
अरु इंद्र मित्र बन आया
सर्प बने भोजन सामिग्री
उससे यह वर पाया |
घट ला कर के कुश पर रक्खा
फिर नागों से बोले
हो पवित्र चाखो अमृत को
पहले कोइ न खोले |
हो प्रसन्न सब नाग नहाने
गए वहाँ से नद तक
इंद्र ले गया आ घट
वे लौटे जब तक |
देखा वहाँ पर अमृत हीन
पड़ा कुश सूना |
खाली कुश को देख ह्रदय में
दुःख उमढ़ा फिर दूना
अमृत के लालच में पड़कर
तब कुश को ही चाटा |
उसकी तीखी कोरों नें
उनकी जीभों को काटा
इस प्रकार पक्षी वर ने
साहस का खेल दिखाया
कर माता को मुक्त दासता से
महान सुख पाया |
मा की सेवा बड़ी जगत में
इस बिन सब सूना है
माता पड़ी कष्ट में हो तो
सूत को दुःख दूना है |
है यह सार महान गरुड़ के
सुन्दर सुखद चरित का
माता का सेवक सुख पाता
हो भागी शुभ गति का |
किरण






4 comments:

  1. पूरी कथा पढ़ ली|बहुत अच्छा लगा|

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  2. बहुत ही विलक्षण कथा है यह ! बहुत आनंद आया इसे पढ़ कर !

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  3. अरे वाह यहाँ तो वाक़ई खज़ाना है, पहली बार आया हूँ, फिर से आने का मन ज़रूर करेगा

    अपनी माँ जी की कृतियों को हमारे साथ साझा करने के लिए बहुत बहुत आभार

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  4. आदरणीय महोदय
    मै आपकी यह पोस्ट बिलम्ब से पढ पाया हूँ ।
    सराहनीय है
    मेरी पोस्ट पर आकर आर्शिवाद देने के लिये आभार
    आपकी पोस्ट सराहनीय है शुभकामनाऐं!!

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