अमृत कलश

Wednesday, December 7, 2011

पितृ भक्त देवव्रत (भाग २)

महा प्रतापी शांतनु उस
राजा के पुत्र हुए ज्ञानी
कुरु कुल श्रेष्ठ कहाये
जिनकी सत्ता देवों ने मानी |
देखा जब चौथा पन आते
नृप प्रतीप सुत से बोले
राज्य करो तुम हे सुत ज्ञानी
देव मनुज भय से डोलें |
कर राज्याभिषेक नृपति
निज सुत का जंगल को आये
तप में रत रह प्राण त्याग कर
स्वर्गलोक में जा छाये !
एक दिवस आखेट खेलने
आये शांतनु गंगा तट |
देख पूर्व पति गंगा सन्मुख
आई नारी बन झटपट !
उसका सुन्दर रूप देख
शांतनु का मन था रीझ गया
यूँ न मुझे पाओगे राजा
यह कह हँसती रही जया !
मैं जो चाहूँ वही करूँगी
रोक नहीं पाओगे तुम
यदि रोकोगे चली जाऊँगी
फिर न मुझे पाओगे तुम |
दे सकते हो अगर वचन यह
तो यह शुभ संस्कार करो
मैं पत्नी हूँ देव तुम्हारी
चाहो तो स्वीकार करो !
दिया वचन राजा ने सुख से
ब्याह उसे फिर घर लाया
राज भवन मैं रौनक आई
जनता में आनंद छाया |
गंगा ने बरसों राजा की
सेवा में तनमन वारा
इसी समय में सात बार
वसुओं को गर्भ बीच धारा |
किन्तु जनमते ही उन सब का
था उसने उद्धार किया
निज वचनों को पूर्ण किया
उन सबको पार उतार दिया |
पुत्र आठवाँ होते ही
राजा बोले "अब न्याय करो
इसे मुझे अब देदो देवी
अब न अधिक अन्याय करो |"
"राजा तुमने वचन दिया था
मैं चाहूँ जो कर सकती हूँ
रोक न पाओगे तुम मुझ को
चाहूँ तो मैं मर सकती हूँ |
किन्तु तुम्हारे पास नहीं मैं
बिलकुल रहने पाऊँगी
निज सुत को भी पालन हित
अपने संग ले जाऊँगी |"
यह कह गंगा सुत का कर गह
गृह त्यागी बन चली गयी
शांतनु जैसे ज्ञानी की भी
यहाँ बुद्धि थी छली गयी |
-------क्रमशः








3 comments:

  1. अच्छी कथा चल रही है...अगली प्रस्तुति के इन्तजा़र में...

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  2. बहुत सुन्दर चल रही है कथा जीजी ! बहुत आनंद आ रहा है ! अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी !

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  3. रोचक प्रस्तुतिकरण्।

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