अमृत कलश

Wednesday, August 17, 2011

परिश्रम का फल



किसी नगर में सड़क किनारे एक पेड़ था भारी
बड़ी बड़ी शाखायें जिसकी फूल बड़े मनहारी |
एक दिवस था उसी वृक्ष पर उड़ता कौवा आया
चना एक निज भोजन के हित दबा चोंच में लाया |
भूखा कौवा छाँह देख कर उस पर बैठा उड़ कर
सोचा उसने भूख मिटा लूँ चना कुरमुरा खा कर |
ज्यों ही चना तने पर रक्खा घुसा छेद में जाकर
निकला नहीं निकाले से कौवा बोला पछता कर |
बहुत दुःख है हाय पेड़ ने मेरा भोजन खाया
मैं तो भूखा ही बैठा हूँ अरे देव की माया |
बहुत सोच वह बढ़ई के घर दौड़ा गया उसी क्षण
बोला पेड़ चीर कर दे दो मेरा खोया लघु कण |
बढ़ई बोला है न मुझे अवकाश भाग तुम जाओ
मेरे पास न आओ पाजी भूखों मरो या खाओ |
कौवा पहुंचा राज महल में राजा से यूँ बोला
राजा बढ़ई को देश निकालो उसने तना न खोला |
राजा बोला अरे मूर्ख तू पास मेरे क्यूँ आया
व्यर्थ समय का नाश किया है गुस्सा व्यर्थ दिलाया |
हो निराश वह पहुँचा भीतर रानी से बोला वह
राजा से रूठो रानी तुम धरना दे बैठा वह
बोला "राजा बात न सुनते बोलो मैं क्या खाऊं
नहीं पास हैं साधन कुछ भी कैसे भूख मिटाऊँ "|
रानी बोली मुझे काम हैं बहुत चला जा भाई
आज्ञा पाए बिना महल में आया शामत आई |
कौआ पहुँचा चूहे के घर बोला कपड़े काटो
रानी है गर्वीली ऐसी उसको जाकर डाटो |
चूहा बोला इनके ही बल पर ही मैं मौज उड़ाता
नहीं करूँगा मैं गद्दारी ऐसा मुझे न भाता |
फिर कौआ पहुँचा बिल्ली घर बोला बिल्लीरानी
चूहे को झटपट खा जाओ करता है मनमानी |
बिल्ली बोली अरे मुझे है पाप मार्ग बतलाता
मैं भक्तिन माला पहने हूँ तुझे नजर ना आता |
तब कौआ कुत्ते से बोला मेरी मदद करो तुम
बिल्ली मार जगत में यश लो बिलकुल नहीं डरो तुम |
कुत्ता बोला मैं पहरे पर आया अभी अभी हूँ
मेरा है कर्तव्य बड़ा, मैं फिर तैयार कभी हूँ |
कौआ डंडे से जा बोला कुत्ता मारो भाई
उसने मेरी बात न मानी, ना ही बिल्ली खाई |
डंडा बोला निरपराध को व्यर्थ दंड क्यों दूँ मैं
जो मर जाए अरे अकारण क्यों सिर अपयश लूँ मैं |
अग्नि पास जा कर तब उसने सारी कथा सुनाई
किन्तु वहाँ भी उसके पल्ले वही निराशा आई |
सागर पास गया वह दौड़ा बोला अग्नि बुझाओ
हो कर के मेरे सहाय कुछ जग में नाम कमाओ |
किन्तु न सागर बोला कुछ भी शांत रहा लहराता
"अरे गर्व से मतवाले है तेरा हरी से नाता |
इसी अकड़ में दीन वचन भी मेरे तुझे न भाते
नहीं सहायता मेरी करता, तुझे दुखी न सुहाते " |
बहुत क्रोध में आक़र वह गज से यूँ बोला जा कर
सागर सोख करो हित मेरा तुम तो हो करुणाकर |
हाथी रहा झूमता खाता वह कुछ ध्यान ना लाया
बहुत हार कर भूखा कौवा चींटी के घर आया |
सारी विपत कथा कह डाली फिर सहायता माँगी
बड़े ध्यान से रही सोचती वह चींटी अनुरागी |
फिर बोली निश्चिन्त रहो तुम मैं हाथी को मारूँ
हाथी बोला , अरे नहीं मैं सब सागर पी डालूँ
सागर बोला अग्नि बुझाऊँ मुझे न व्यर्थ सताओ
अग्नि कह उठी डंडा अभी जला दूँ चल कर, आओ |
डंडा बोला मुझ गरीब पर क्रोध करो मत भाई
मैं कुत्ते को मार भगाऊँ उसकी शामत आई |
कुत्ता बोला मैं बिल्ली को खा कर भूख मिटाऊँ
बिल्ली बोली चूहा खा कर झगड़ा अलग हटाऊँ |
चूहा बोला मुझे न मारो मैं कपड़े काटूँगा
चुन चुन कर सब जरी रेशमी कपड़ों को चाटूँगा |
रानी घबरा उठी रूठ कर राजा जी से बोली
राजा ने बढ़ई बुलवा कर उसकी बुद्धी खोली |
तब बढ़ही ने पेड़ काट कर दाना तुरंत निकाला
भूखे कौए ने तब झट से उसको चट कर डाला |
मिला परिश्रम और साहस का उसको जो उत्तम फल
वरे सफलता और कीर्ति को भोगे वो सुख के पल |


किरण



















3 comments:

  1. sach me mahnat ka fal hamesa accha hi hota hai...

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  2. बहुत अच्छी कविता ... मैंने यह कहानी बचपन में ही सुनी थी ..बस कौवे कि जगह चिड़िया थी :)

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  3. बहुत प्रभावशाली काव्य कथा है ! यही कहानी मेरे ब्लॉग 'सुधीनामा' पपर गद्य में "चना न चब्बूँ क्या" के शीर्षक के साथ कुछ परिवर्तित स्वरुप में उपलब्ध है ! यह कहानी आज भी उतनी ही मनोरंजक व प्रेरक है ! बहुत सुन्दर !

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