अमृत कलश

Sunday, September 4, 2011

एम् एल ए बनने की आकांक्षा

जो मैं एम् एल ए बन पाता 
तो चाचा नेहरू के साथ जा 
मैं गौरव से हाथ मिलाता 
जो मैं एम् एल ए बन पाता |
लोग मुझे भी शीश झुकाते 
घर पर आ कर टेक्स चुकाते 
आदर से नित मुझे बुलाते 
गंगा जल से पैर धुलाते |
मैं हर एक पत्र में अपना 
सुन्दर एक फोटो छपवाता 
नित नए उद्बोधन देता 
नित्य नए उदघाटन करता |
नित्य नए झंडे फहराता 
लंबी चौड़ी बात बनाता 
झूट मूटवादे कर कर के 
अखवारों में नाम कमाता |
नई नई स्कीमें रचता 
रोज नए आश्वासन देता 
कार  सड़क पर नित दौडाता 
जो मैं एम् एल ए बन पाता |
दुनिया को मैं यह दिखलाता 
बहुत व्यस्त हूँ चैन न बिलकुल
रोटी नहीं वक्त पर खाता
जो मैं एम् एल ए बन पाता |
बड़े बड़े नगरों में जाता 
देश विदेश घूम कर आता 
लन्दन अमरीका भी जाता 
अच्छे अच्छे माल उडाता 
इस गांधी टोपी के बल से 
जग के सारे सुख पा जाता |
हाथ  मार दो चार फावड़े के 
मैं श्रम दानी कहलाता 
बंजर भूमि दान में दे कर 
मैं भूदानी भी बन जाता|
हरिजन सेवक संघ खोल कर 
मैं बापू का भक्त कहाता 
जो मैं एम् एल ए बना पाता |
किरण



3 comments:

  1. जिस समय इस रचना का सृजन हुआ था तब भी झूठे वादे होते थे ??????...

    अच्छी प्रस्तुति

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  2. नेताओं के झूठे वादों की परम्परा कितनी पुरानी है इसीसे ज्ञात होता है ! तब का बोया हुआ भ्रष्टाचार का यह विषैला पौधा अब मजबूत पेड़ बन गया है और इसकी जड़ें इतनी गहरी हो गयी हैं कि अब इसे उखाडना असाध्य हो गया है ! यह रचना आज भी उतनी ही प्रासंगिक है ! बहुत सुन्दर ! हास्य रस में लपेट कर नेताओं की खूब कलई खोली है !

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  3. नेता लोग तब भी भ्रष्ट थे आज भी भ्रष्ट हैं|

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