अमृत कलश

Sunday, December 4, 2011

पितृ भक्त देवव्रत (भाग एक )

एक समय था ऋषि वशिष्ट से
शापित वासु गण हो कर के
गंगा को आ कथा सुनाई
निज पापों को रो कर के |
गंगा ने तब कहा, "शोक को
छोड़ो ऐ वसु विज्ञानी
गर्भ धारिणी मृत्यु लोक में
बनूँ तुम्हारी मैं मानी |
फिर मैं तुमको श्राप ताप से
मुक्त उसी क्षण कर दूँगी
तुम निज गौरव लौटा पाओ
ऐसा साहस भर दूँगी |"
यह कह गंगा मृत्यु लोक में
निज आश्रम को लौट गई|
पौरव पति प्रतीप की भक्ति
देख हर्ष से चकित हुई
बोली, "राजन हो प्रसन्न
घर जाओ, सुत वर पाओगे |
मैं उसकी पत्नी होऊँगी
तुम सब सुख भर पाओगे |"


किरण

6 comments:

  1. बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति । मेर नए पोस्ट पर आकर मेरा मनोबल बढ़एं । धन्यवाद ।

    ReplyDelete
  2. संगीता जी इसके आगे की कहानी बाद मैं भेजने की कोशिश रहेगी ऐसा ही स्नेह बनाए रखें |

    ReplyDelete
  3. देवव्रत की यह बहुत ही रोचक कथा है ! मम्मी के खजाने से बड़े नायाब मोती ढूँढ कर प्रस्तुत कर रही हैं आप ! आपको बधाई इस पुण्य कार्य के लिये ! कथा अभी जारी है इसलिए रचना के अंत में 'continued' या 'क्रमश:' लिख दिया करिये ताकि पाठकों की उत्सुकता बनी रहे और वो अगली कड़ी के लिये प्रतीक्षारत रहें !

    ReplyDelete
  4. साधना जी आपको ब्लॉग पर पा कर बहुत प्रसन्नता होती है |
    मैं क्रमशःलिखना भूल गयी थी आगे से ध्यान रखूँगी |
    आशा

    ReplyDelete
  5. वाह बहुत सुन्दर अन्दाज़्।

    ReplyDelete