अमृत कलश

Tuesday, December 13, 2011

पितृ भक्त देव व्रत(भाग ३ )

छत्तीस वर्ष बीतने पर
गंगा तट आ नृप ने देखा
है अवरुद्ध धार जल की
बहती गंगा ज्यों कृष् रेखा |
लगे खोजने राजा कारण
दिव्य पुरुष देखा उनने
निज वाणों से राह रोक दी
गंगा जी की भी जिनने |
ज्यों ही द्रष्टि पड़ी राजा पर
युवक तिरोहित हुआ वहीं
पाया नहीं निशाँ उन्होंने
बहुत खोज की बृथा रही |
तब गंगा से कहा नृपति ने
उस कुमार को फिर लादो
एक बार ही ओ कल्याणी
वह सुन्दर नर दिखलादो |
निज सूत का दक्षिण कर गह कर
तब गंगा सन्मुख आई
राजा यह लो पुत्र तुम्हारा
कह कर थी वह मुसकाई |
धीर वीर ज्ञानी पंडित है
इसे न कुछ भी कमीं रही
यह कह सूत को सौप जान्हवी
तभी तिरोहित हुई वहीँ |
निज सूत को पा राजा हर्षित
हो कर राज महल आया
उसे बना युवराज प्रेम से
बहुत हृदय में हर्षाया |
गंगा सूत ये ही थे सुन्दर
जो देवब्व्रत कहलाए
करके भीषण प्रण ये ही फिर
भीष्म पितामंह कहलाए |
उनकी उसी प्रतिज्ञा की
अब कथा यहाँ पर आती है
जो द्वापर युग से अब तक
सत्पथ हमें बताती है |
यमुना के तट पर एक दिवस
शांतनु मृगया को गये जभी
एक विचित्र गंघ उनके
मानस में आ भर गयी तभी |
इसका कारण खोज रहे थे
तभी देखी सुन्दर बाला
जिसकी रूप राशि ने
नृप को मोहित कर डाला |
राजा बोले ए कल्याणी
तुम किसकी कन्या प्यारी
कौन तुम्हारा पिता
धन्य वह कौन तुम्हारी महतारी |
वह बोली यमुना तटवासी
धींवर की कन्या हूँ मैं
धर्म हेतु हूँ नाव चलाती
पार तुम्हें क्या कर दूं मैं |
नृप बोले मैं पास तुम्हारे
पितृ देव के जाता हूँ
तुम रानी बन जाओ हमारी
यह आज्ञा ले आता हूँ |
यह कह कुटिया पर आकर
धींवर से सब बात कही
वह प्रसन्न हो बोला राजन
बात तुम्हारी सही सभी |
क्रमशः-------

किरण



4 comments:

  1. ये तो बहुत सुन्दर श्रृंखला शुरु की है।

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  2. बहुत सुन्दर...अगली कड़ी के इन्तज़ार में...

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  3. बहुत प्रेरक कहानी है देवव्रत की ! इसकी हर कड़ी बहुत ही रोचक है ! अति सुन्दर !

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  4. वन्दना जी ,ऋता जी और साधना जी आपका टिप्पणी के लिए आभार |
    आशा

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